Baba
This email contains four sections:
1. Posting: Baba story: क्षुद्र का आत्मसमर्पण और बाबा - कृपा
2. PS #557: When You do not want to come into my bond...
3. End Quote: Dirty people eat with both hands - why?
4. Links
होली या दशहरा किसी महत्वपूर्ण त्यौहार में छुट्टी के समय मैं घर गया हुआ था। वापसी में जब पटना आया और पटना में गाड़ी में मैंने भीड़ देखी तो मेरे होश उड़ गए। पूरी ट्रेन डिब्बे से लेकर छत तक और यहाँ तक कि दो डिब्बों को जोड़ने वाली बीच कि खतरनाक खाली जगह भी लोगो से खचाखच भरी हुई थी। मैंने समझ लिया कि इस गाड़ी में जाना तो दूर, इस बारे में सोचना भी गलत है। वस्तुतः, उस समय धनबाद आने के लिए सीधे तौर पर एक ही ट्रेन थी – ‘पटना – रांची एक्सप्रेस’। इसी ट्रेन में दो – चार डिब्बे धनबाद के लिए जोड़ दिए जाते थे तथा गो मो स्टेशन में उन्हें काटकर एक पैसेंजर ट्रेन में जोड़ कर धनबाद लाया जाता था। मैंने पता लगाया तो मालूम हुआ कि एक पैसेंजर ट्रेन पटना से गया जाती है जो इसी गाड़ी के बाद में है। मैंने उसे ही पकड़ लिया तथा सोचा कि गया गया स्टेशन से कोई अन्य गाड़ी पकड़कर धनबाद चला जाऊँगा। मैं गया स्टेशन आ गया। लेकिन यहाँ का नजारा तो और भी विचित्र था। दो गाड़ियाँ (ट्रेने) धनबाद जानेवाली आई और गुजर गयी। लेकिन उन गाड़ियों में शायद ही कोई वहाँ चढ़ पाया हो। दोनों ट्रेनें नीचे से छत तक खचाखच भरी हुई थी। डिब्बों के दरवाजे और खिड़कियों सभी बंद थे। हजारो लोग प्लैटफार्म पर गाड़ी में चढ़ने के लिए इधर से उधर दौड़ लगा रहे थे और मैं भी उसमे शामिल था। लेकिन, लाचार हो उन ट्रेनों को छोडना पड़ा।
हे प्रभु, हे बाबा! मै हार गया, अब तुम मेरी मदद करो
उस दिन किसी भी परिस्थिति में मुझे गोविन्दपुर आना था। भीड़ देखकर मैं बेचैन हो गया। अब कैसे जाऊँगा? अब तीसरी ट्रेन आई थी। फिर, वही नजारा। हजारो लोगो की भीड़ में मैं भी प्लैटफार्म पर दौड़ लगा रहा हूँ। परिणाम वही नज़र आ रहा था। निराश हो कर एक स्थान पर गाड़ी से सट कर मै खड़ा हो गया। अपनी आँखे कुछ पल के लिए मूँद ली और परमपिता बाबा का ध्यान कर उनसे विनती की – “हे बाबा! तुम जानते हो कि मुझे कल पहुचना कितना आवश्यक है। मैं अपनी ताकत लगा दिया और देख लिया कि गाड़ी पर चढ़ना मेरे लिए संभव नहीं है। हे बाबा! मै हार गया, अब आप मेरी मदद करें। बिना आपकी मदद के यह गाड़ी तो क्या, ऐसी – ऐसी कितनी गाड़ियाँ छूट जाएँगी। हे प्रभु! आप सर्वशक्तिमान है, मेरी मदद करें|” इधर मेरा समर्पण और उधर मेरी बगल की खिड़की का खुलना – दोनों साथ – साथ हुए। मैं जान गया कि प्रभु ने मेरी मदद कर दी और और – मेरा गाड़ी पर चढ़ना अब निश्चित है। खिड़की खोलने वाले सज्जन पचास वर्ष के आस – पास के गौरवर्ण व्यष्टि थे। देखने में शरीफ लगते थे। मैंने पूछा – “भाई साहब, क्या मुझे भीतर आने देंगे?” “हाँ, हाँ, आइये, आइये|” उनका उत्तर था। मैं खिड़की से वही खड़े होने की जगह से सामान समेत डिब्बे में चढ़ गया। मेरे डिब्बे में सवार होते ही उन्होंने तुरंत खिड़की बंद कर ली। उन्होंने मुझे आदर से बैठने के लिए जगह भी दे दी|
डिब्बे मे मैंने देखा कि सैकड़ों लोग न जाने कहाँ से खड़े ही आ रहे है। और मुझे? मुझे तो बैठने की कि आरामदायक जगह भी मिल गयी। बाबा श्री श्री आनन्दमूर्तिजी की कृपा पर विभोर हो मेरा मन मयूर नाचने लगा। अहा! क्या कृपा की बाबा ने? कहाँ अपनी सारी ताकत लगाकर भी जो काम मैं नहीं कर सका, उसे प्रभु जी बाबा ने मात्र कुछ पल के समर्पण से ही ... ... मे कर दिया। बाबा की लीला अपरम्पार है ।
परम प्रभु, बाबा चरण में
देवकुमार
Shrii Bhakti jii presents this story:
- We are very grateful to Shrii Bhakti for his immense contribution of putting the hardly legible material into a usable electronic format. Without his efforts it would not have been possible to publish this story. - Eds
When You do not want to come into my bond,
then why do You play Your divine liila with me
Note: Those who don't try sincerely to do 6th lesson sadhana, they cannot understand this song.
Prabhat Samgiita Intro: This following Prabhat Samgiita is the heart-felt expression of an A-grade bhakta. Here the bhakta is making a loving accusation to Parama Purusa. Such high feelings come when there is extreme intimacy and pure, one-pointed love - devotion for Ista. Then the bhakta feels internally that he has the right to demand and place his accusation at the Lord's feet. The bhakta desires Parama Purusa in a close and intimate way, and that desire is not being fulfilled, so he lovingly accuses Parama Purusa: “You are not fulfilling my yearning to have You close.” So the following song is the expression of deep love for Parama Purusa.
In this song, the bhakta is talking to Parama Purusa and referring to himself in an indirect manner in the first and second stanzas. If anyone carelessly reads those stanzas, they will not understand that the bhakta is actually talking about himself - using the 3rd person.
"Dhará dite cáo ná jakhan, tabe keno liilá karo..." (Prabhat Samgiita #557)
Purport:
O’ Parama Purusa, when You do not want to come into my bond, then why do You play Your divine liila with me. Why are You coming close and then running away. Why do You fill the eyes, of those who love You so much, with tears. O’ Lord You are so unkind.
The one, who worships You daily when the sun rises in the eastern sky and also when the sun sets in the evening crimson sky, performs puja with deep devotion for You. That sadhaka sincerely does morning and evening sadhana, and does half-meditation constantly throughout the day. Then why do you push and kick that bhakta farther and farther away with Your feet? You create all kinds of opposition from family, friends, society, so sadhana gets disturbed.
O’ Parama Purusa, I live in the hope of getting You and holding Your feet. I am fighting the darkness of avidya maya every moment - all the time. Worldly attractions drag my mind in a downward direction, away from You. Even then I fight back and go on running towards You. Baba, in my heart I know this longing of mine for You is not a false hope. I am sure by Your grace this darkness will vanish one day and I will get You. You will make my life successful.
Note: Those who want a free audio file of this song please write us.
Note: Here eating means holding the food putting that food in the mouth with that hand.
Baba says, "There is a difference, however, between the cave-dwellers and the aboriginal human beings of the prehistoric period, and present day human beings. Human beings have brought more subtle beauty into the daily tasks and habitual behaviour, which they used to do in a crude way. Before eating, prehistoric human beings did not wash their hands, and they used both hands to eat. Today, we wash our hands, and use the right hand, or a spoon and fork. We enjoy eating in a more subtle fashion." (1)
In some parts of the world people eat using both hands - i.e. they touch their food with both their left and right hands, and use both hands to directly put food into their mouth. That is poor hygiene. Humans have two hands - one of which is used for cleaning their backside. So one should not use that hand for eating purposes - i.e. holding food and placing that hand into the mouth etc. The only exception can be on medical grounds or if one has only one hand. Otherwise, if one has two hands then only use the right for eating - not for the back side. The left hand will be for that purpose. Think of it this way: Even if the toilet bowl is professionally cleaned and sterilised, no one will like to place their food in the toilet and then eat out of that toilet bowl. So those who eat and place food into the mouth using both hands are dirty. Their behaviour is uncivilised.
Reference
1. Subhasita Samgraha - 19, The Supreme Aesthetic Science and the Cult of Devotion
This email contains four sections:
1. Posting: Baba story: क्षुद्र का आत्मसमर्पण और बाबा - कृपा
2. PS #557: When You do not want to come into my bond...
3. End Quote: Dirty people eat with both hands - why?
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Baba story: क्षुद्र का
आत्मसमर्पण और बाबा - कृपा
होली या दशहरा किसी महत्वपूर्ण त्यौहार में छुट्टी के समय मैं घर गया हुआ था। वापसी में जब पटना आया और पटना में गाड़ी में मैंने भीड़ देखी तो मेरे होश उड़ गए। पूरी ट्रेन डिब्बे से लेकर छत तक और यहाँ तक कि दो डिब्बों को जोड़ने वाली बीच कि खतरनाक खाली जगह भी लोगो से खचाखच भरी हुई थी। मैंने समझ लिया कि इस गाड़ी में जाना तो दूर, इस बारे में सोचना भी गलत है। वस्तुतः, उस समय धनबाद आने के लिए सीधे तौर पर एक ही ट्रेन थी – ‘पटना – रांची एक्सप्रेस’। इसी ट्रेन में दो – चार डिब्बे धनबाद के लिए जोड़ दिए जाते थे तथा गो मो स्टेशन में उन्हें काटकर एक पैसेंजर ट्रेन में जोड़ कर धनबाद लाया जाता था। मैंने पता लगाया तो मालूम हुआ कि एक पैसेंजर ट्रेन पटना से गया जाती है जो इसी गाड़ी के बाद में है। मैंने उसे ही पकड़ लिया तथा सोचा कि गया गया स्टेशन से कोई अन्य गाड़ी पकड़कर धनबाद चला जाऊँगा। मैं गया स्टेशन आ गया। लेकिन यहाँ का नजारा तो और भी विचित्र था। दो गाड़ियाँ (ट्रेने) धनबाद जानेवाली आई और गुजर गयी। लेकिन उन गाड़ियों में शायद ही कोई वहाँ चढ़ पाया हो। दोनों ट्रेनें नीचे से छत तक खचाखच भरी हुई थी। डिब्बों के दरवाजे और खिड़कियों सभी बंद थे। हजारो लोग प्लैटफार्म पर गाड़ी में चढ़ने के लिए इधर से उधर दौड़ लगा रहे थे और मैं भी उसमे शामिल था। लेकिन, लाचार हो उन ट्रेनों को छोडना पड़ा।
हे प्रभु, हे बाबा! मै हार गया, अब तुम मेरी मदद करो
उस दिन किसी भी परिस्थिति में मुझे गोविन्दपुर आना था। भीड़ देखकर मैं बेचैन हो गया। अब कैसे जाऊँगा? अब तीसरी ट्रेन आई थी। फिर, वही नजारा। हजारो लोगो की भीड़ में मैं भी प्लैटफार्म पर दौड़ लगा रहा हूँ। परिणाम वही नज़र आ रहा था। निराश हो कर एक स्थान पर गाड़ी से सट कर मै खड़ा हो गया। अपनी आँखे कुछ पल के लिए मूँद ली और परमपिता बाबा का ध्यान कर उनसे विनती की – “हे बाबा! तुम जानते हो कि मुझे कल पहुचना कितना आवश्यक है। मैं अपनी ताकत लगा दिया और देख लिया कि गाड़ी पर चढ़ना मेरे लिए संभव नहीं है। हे बाबा! मै हार गया, अब आप मेरी मदद करें। बिना आपकी मदद के यह गाड़ी तो क्या, ऐसी – ऐसी कितनी गाड़ियाँ छूट जाएँगी। हे प्रभु! आप सर्वशक्तिमान है, मेरी मदद करें|” इधर मेरा समर्पण और उधर मेरी बगल की खिड़की का खुलना – दोनों साथ – साथ हुए। मैं जान गया कि प्रभु ने मेरी मदद कर दी और और – मेरा गाड़ी पर चढ़ना अब निश्चित है। खिड़की खोलने वाले सज्जन पचास वर्ष के आस – पास के गौरवर्ण व्यष्टि थे। देखने में शरीफ लगते थे। मैंने पूछा – “भाई साहब, क्या मुझे भीतर आने देंगे?” “हाँ, हाँ, आइये, आइये|” उनका उत्तर था। मैं खिड़की से वही खड़े होने की जगह से सामान समेत डिब्बे में चढ़ गया। मेरे डिब्बे में सवार होते ही उन्होंने तुरंत खिड़की बंद कर ली। उन्होंने मुझे आदर से बैठने के लिए जगह भी दे दी|
डिब्बे मे मैंने देखा कि सैकड़ों लोग न जाने कहाँ से खड़े ही आ रहे है। और मुझे? मुझे तो बैठने की कि आरामदायक जगह भी मिल गयी। बाबा श्री श्री आनन्दमूर्तिजी की कृपा पर विभोर हो मेरा मन मयूर नाचने लगा। अहा! क्या कृपा की बाबा ने? कहाँ अपनी सारी ताकत लगाकर भी जो काम मैं नहीं कर सका, उसे प्रभु जी बाबा ने मात्र कुछ पल के समर्पण से ही ... ... मे कर दिया। बाबा की लीला अपरम्पार है ।
परम प्रभु, बाबा चरण में
देवकुमार
Shrii Bhakti jii presents this story:
- We are very grateful to Shrii Bhakti for his immense contribution of putting the hardly legible material into a usable electronic format. Without his efforts it would not have been possible to publish this story. - Eds
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Section 2 ==
When You do not want to come into my bond,
then why do You play Your divine liila with me
Note: Those who don't try sincerely to do 6th lesson sadhana, they cannot understand this song.
Prabhat Samgiita Intro: This following Prabhat Samgiita is the heart-felt expression of an A-grade bhakta. Here the bhakta is making a loving accusation to Parama Purusa. Such high feelings come when there is extreme intimacy and pure, one-pointed love - devotion for Ista. Then the bhakta feels internally that he has the right to demand and place his accusation at the Lord's feet. The bhakta desires Parama Purusa in a close and intimate way, and that desire is not being fulfilled, so he lovingly accuses Parama Purusa: “You are not fulfilling my yearning to have You close.” So the following song is the expression of deep love for Parama Purusa.
In this song, the bhakta is talking to Parama Purusa and referring to himself in an indirect manner in the first and second stanzas. If anyone carelessly reads those stanzas, they will not understand that the bhakta is actually talking about himself - using the 3rd person.
"Dhará dite cáo ná jakhan, tabe keno liilá karo..." (Prabhat Samgiita #557)
Purport:
O’ Parama Purusa, when You do not want to come into my bond, then why do You play Your divine liila with me. Why are You coming close and then running away. Why do You fill the eyes, of those who love You so much, with tears. O’ Lord You are so unkind.
The one, who worships You daily when the sun rises in the eastern sky and also when the sun sets in the evening crimson sky, performs puja with deep devotion for You. That sadhaka sincerely does morning and evening sadhana, and does half-meditation constantly throughout the day. Then why do you push and kick that bhakta farther and farther away with Your feet? You create all kinds of opposition from family, friends, society, so sadhana gets disturbed.
O’ Parama Purusa, I live in the hope of getting You and holding Your feet. I am fighting the darkness of avidya maya every moment - all the time. Worldly attractions drag my mind in a downward direction, away from You. Even then I fight back and go on running towards You. Baba, in my heart I know this longing of mine for You is not a false hope. I am sure by Your grace this darkness will vanish one day and I will get You. You will make my life successful.
Note: Those who want a free audio file of this song please write us.
== Section 3
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The section below demarcated by asterisks is
an entirely different topic,
completely unrelated to the above material. It stands on its own as a point of interest.
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Dirty people eat with both hands -
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Note: Here eating means holding the food putting that food in the mouth with that hand.
Baba says, "There is a difference, however, between the cave-dwellers and the aboriginal human beings of the prehistoric period, and present day human beings. Human beings have brought more subtle beauty into the daily tasks and habitual behaviour, which they used to do in a crude way. Before eating, prehistoric human beings did not wash their hands, and they used both hands to eat. Today, we wash our hands, and use the right hand, or a spoon and fork. We enjoy eating in a more subtle fashion." (1)
In some parts of the world people eat using both hands - i.e. they touch their food with both their left and right hands, and use both hands to directly put food into their mouth. That is poor hygiene. Humans have two hands - one of which is used for cleaning their backside. So one should not use that hand for eating purposes - i.e. holding food and placing that hand into the mouth etc. The only exception can be on medical grounds or if one has only one hand. Otherwise, if one has two hands then only use the right for eating - not for the back side. The left hand will be for that purpose. Think of it this way: Even if the toilet bowl is professionally cleaned and sterilised, no one will like to place their food in the toilet and then eat out of that toilet bowl. So those who eat and place food into the mouth using both hands are dirty. Their behaviour is uncivilised.
Reference
1. Subhasita Samgraha - 19, The Supreme Aesthetic Science and the Cult of Devotion
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