Baba
This email contains five sections:
1. Beginning Quote: Namby-pamby devotee means no devotion
2. Bangla Quote: এ ধারণা একটা মানসিক ব্যাধি ছাড়া আর কিছুই নয়
3. Posting: मेरा प्रथम बाबा दर्शन
4. Nobody can stay here... - Ananda Vanii
5. Links
Namby-pamby devotee means no devotion
Baba says, "You must continue doing good to society, and at the same time must fight against the bad...On the path of dharma, one is not only to do noble deeds; one must also fight against the dishonest people both are virtuous actions. There are many good people in the society - noble people engaged in noble deeds - who are not ready to fight against wrongs and injustices. This sort of passive benevolence does not really promote the cause of human progress in the world. What is desirable is to acquire virtue by doing noble deeds and fighting against all sins and crimes. Both are mandatory, both an integral part of dharma." (1)
Note: If we follow Baba's above mandate our organisation will be free from all kinds of negativity. Stagnant minded people will not get the opportunity to pollute Baba's ideology by imposing their dogma.
Reference
1. Ananda Vacanamrtam - 8, p. 50-51
এ ধারণা একটা মানসিক ব্যাধি ছাড়া আর কিছুই নয়
“যে একটা বিশেষ গোষ্ঠী, ৰাকী সমস্ত মানুষের, বা ৰাকী সমস্ত জীব-জন্তুর উপর শোষণ করে চলেছে | অথবা, একটা বিশেষ গোষ্ঠী, আর একটা বিশেষ গোষ্ঠীর উপর অত্যাচার শোষণ করে চলেছে | এমন আমরা দেখতে পাই অনেকে ভাবে যে “তারা ৰুঝি ঈশ্বরের আশীর্বাদ-পূত জীব | আর ৰাকী জনগোষ্ঠীরা ঈশ্বরের অভিশাপ | তারা অনেকে ভাবে---”যে হেতু মানুষ শ্রেষ্ঠ জীব, সুতরাং ৰাকী জীবেরা কুকুর, ছাগল, গোরু, ভেড়া, তারা ঈশ্বরের অভিশপ্ত | সুতরাং তাদের যত পার, শোষণ করো |” যে হেতু তারা পেছিয়ে পড়ে আছে, তাই ধরে নিতে হৰে | যে হেতু downtrodden, সেই জন্যে ধরে নিতে হৰে, যে ওদের উপর শোষণ করৰার অধিকার, ওদের উপর অত্যাচার করৰার অধিকার | এই সমস্ত আশীর্বাদ-পুষ্ট জীবের আছে | এ ধারণা একটা মানসিক ব্যাধি ছাড়া আর কিছুই নয় |” (1)
Reference
1. ১ জানুয়ারি ১৯৮৪
मैं जब करीब १७-१८ वर्ष का था, उस समय अपने एक चचेरे भाई के मुख से ‘आनन्दमार्ग’ नाम की एक पुस्तक का नाम सुना| बाद में उनके हाथ में मैंने वह पुस्तक देखी भी| वे मुझसे नहीं बल्कि अपने हम-उम्र के कुछ लोगों से उस पुस्तक की प्रशंसा कर रहे थे| मैं उनकी प्रशंसा या उस पुस्तक की उनके मुख से समीक्षा सुन कर अपनी किसी तरह की धारणा नहीं बना सका| कारण स्पष्ट था| उस समय देवी देवताओं के अलावे परमात्मतत्व-दर्शन की जानकारी हममें नहीं के बराबर थी| इसे इस तरह भी कह सकते है की आम लोगों की ही भांति देवी-देवताओं और परमपुरूष में अन्तर मुझे नहीं मालुम था| मैं उन्हें ही भगवान, परमात्मा समझा करता था| यह विचार कि आज भी समाज में बहुसंख्यक लोग हमारे ही जैसा इनमे अन्तर नहीं जानते – शायद यह गलत नहीं होगा|
खैर, मैंने आनंदमार्ग नाम की पुस्तक का नाम तो सुना, लेकिन, उसके लेखक कौन है, उसमे क्या लिखा है – यह सब न तो किसी ने बताया और न मैंने आम लोगों की तरह यह जानने की ज़रूरत ही समझी| पढ़े-लिखें लोगों के बीच सामान्यतः आज देखा जाता है कि ‘आध्यात्म’ की गहरी जानकारी के सम्बन्ध मे उनकी कोई ख़ास दिलचस्पी नहीं होती| बहुत हुआ तो थोड़ा फूल-माला के साथ जल चढ़ा देना (देवी देवताओं की मूर्तियों पर) या कोई अध्यात्मिक पुस्तक का ‘पाठ’ कर लेना| इसी को वें परमात्म भजन का इतिश्री मान लेते हैं| बहुतों को तो यह भी नहीं आता| वे भोग लिप्सा में ही अपना सब हित समझते हैं| खैर मेरे मन में यह बीज अनजाने में ही अवश्य पड़ गया कि यह अच्छी पुस्तक है अर्थात उसके बारे मे जानना चाहिये। यह समझ कर कि उसमे लिखीं बातों को मैं नही समझ सकता, और इससे भी ज्यादा यह कि पुस्तक के बारे मे अप्ना मन्तव्य व्यक्त करने वाले ’केदार भैया’ से उम्र तथा ज्ञान में बहुत छोटा होने के कारण यह पूछ्ने का मैं साहस भी नही जुटा पाया। यह क्रम कई वर्षों तक चला तथा इस बारे में इस बीच के वर्षों में मुझसे किसी ने चर्चा नही की। लेकिन, यह क्रम टूटा और इस तरह। मेरे गांव मिझौली (जिला भोजपूर, बिहार) में श्री बंशरोपन मिश्र नामक एक् व्यष्टि थें। वे कट्टर स्वतन्त्र्ता सेनानी रह चुके थें। वे थे तो मेरे दूर के रिस्ते मे दादा (पिताजी के चाचा) किन्तु, उन्होने न केवल मुझे पढ़ाया था, बल्कि मेरे वृद्ध पिता जी बचपन मे उनसे विद्यालय मे पढ़े थे। उन्हें लोग ‘पन्डित जी’ के नाम से जानतें थे। निर्धन पन्डित जी के बड़े परिवार मे अन्य कोई धन अर्जन करने वाला नही था। लेकिन, इस क्रान्तिकारी ने इन बाधाओं का ख्याल नही किया और स्वतन्त्रता आन्दोलन के अपनें मिशन में जुटे रहे। उनका यह दृढ़ निश्चय और लगन साधक-जीवन जीने वालों के लिये भी प्रेरणादायी है। पन्डित जी देश की आजादी के पुर्व तथा बाद में भी प्राथमिक शिक्षा मे शिक्षक के रूप में रहे।
शिखा-सूत्र (जनेऊ और टीक) हटाना
देश के स्वतन्त्रता-आन्दोलन की कहानियों को वे प्रायः मुझे सुनाया करते थे। एक दिन वे उन कहानीयों को नही कह कर एक बाबा’ के बारे में कह्ने लगें। उन्होने ’बाबा’ की कई सारी कहानियाँ सुनाई तथा यह भी बताया कि ’बाबा’ जमालपूर (मुंगेर जिला) में रहतें हैं। उनके मुख से बाबा की सत्य आध्यात्म-चमत्कार कथा सुनकर मै भी प्रभावित हुआ। लेकिन मेरे लिये यह सम्भव नही हुआ कि बाबा का दर्शन किया जाय। इसके कारण में एक तो आर्थिक तंगी थी तथा दूसरे मैनें समझा कि साधु-संतों की कड़ी मे यह भी एक बाबा होंगे। पंडित जी ने बताया कि उन्होनें बाबा से दीक्षा ली है और शिखा-सूत्र दोनो को उतार फेंका है। क्योंकि बाबा से दीक्षा लेने पर इनका परित्याग आवश्यक है - उन्होंने भी यह किया। पंडित जी द्वारा शिखा-सूत्र (जनेऊ और टीक) हटा देना और वह भी एक छोटी सी चीज़ ’दीक्षा’ के लिये - मुझे रास नही आया। भला एक ब्राह्मण जिसके लिए शिखा-सूत्र अनिवार्य है, अनिवार्य ही नही - इसी मे उसका ब्राह्मणत्व छिपा है - एक साधारण सी ’दीक्षा’ के लिए इतने महत्वपूर्ण वस्तु का परित्याग कर दे यह उचित है? तब वह ब्राह्मण कहाँ? मैनें इस विषय पर उनसे कुछ तर्क-वितर्क भी किया। किन्तु, क्रांतिकारी पंडित जी अपने निर्णय पर अटल रहे। वे यह सबित करने की कोशिश करते कि उन्होने जो किया - वह ठीक है। एक बात का उल्लेख कर देना यहाँ उचित होगा कि वह यह कि ’दीक्षा’ का अर्थ लोगों की तरह मै भी नही समझ सका। मैने हल्के-फुल्के ढ़ंग से यही अर्थ लगाया कि ये भी ’बाबा के चेला’ हो गये हैं। चेला होने को ही ये दीक्षा कह रहे हैं। वस्तुतः, पंडित जी मे गुरु भक्ति तो थी, किन्तु आध्यात्म-दर्शन की जानकारी न के बराबर थी। वे मुझे दर्शन की बातें युक्ति से नही समझा पाते थे। इधर-उधर की बातों से मुझे समझाने की कोशिश करते। यही पर मुझे ’आनन्दमार्ग’ संस्था की जानकारी हुई। पंडित जी द्वारा बाबा का वर्णन और् किसी आनन्दमार्ग संस्था होने की जानकारी मेरे जीवन मे मील का पत्थर साबित हुई। यहाँ मैं एक बात कहना भूल ही गया। बाबा के बारे मे मैने सुन लिया, वें जमालपूर मे रह्ते हैं तथा आनन्दमार्ग की स्थापना कियें हैं। उनके शिष्य है - यह भी सुन लिया। लेकिन उनका नाम क्या है - यह मैं तब तक भी नही जान पाया था। मैंने उनके स्वरूप की कल्पना की कि वें गेरुआ वस्त्रधारी होंगे, अथवा बड़ी-बड़ी दाढ़ी वाले साधू होंगे। इसी के कारण लोग उन्हे बाबा कह्ते होंगे और उनका नाम भी बाबा हो गया होगा। पंडित जी भी उनका नाम मुझे नही बतायें। पंडित जी द्वारा शिखा-सूत्र का परित्याग मेरे तथाकथित ब्राह्मण बहुल गांव मिझौली मे चर्चा का विषय बन गया था। जो कि उस वातवरण के परिवेश मे स्वभाविक ही था।
केवल लोग बाबाऽ बाबाऽ की रट लगाये जा रहे है।
वह अविस्मरणीय दिवस :- मैंने २३ जनवरी १९६० को पटना मे प्रथम बार नौकरी मे योगदान दिया था। उपरी तल्ले पर मेरा आशियाना तथा नीचे के तल्ले पर भारत सेवक समाज नामक एक संस्था का कार्यालय था। वर्ष संभवतः ईसवी सन् १९६४-६५ रहा होगा। मैं अपने कार्यालय से नीचे किसी कार्यवश उतरा था कि भारत सेवक समाज के एक कार्यकर्ता जो नालन्दा जिला, बिहार के रहने वाले थे (नाम मुझे स्मरण नही) ने मुझसे कहा - "चलिये आपको एक संत का दर्शन कराता हूँ।" मैंने कहा - कि वे कहाँ पर दर्शन करायेंगे? उन्होने कहा - "चलिये न, नजदीक ही मे हैं?" मैं भी जिज्ञासावश चल दिया। वे मुझे नजदीक ही अवस्थित ’लेडी स्टीफेंसन हॉल’ में ले गये। वहाँ देखा कि अच्छी-खासी भीड़ जमा थी। बाहर भी कुछ लोग चहलकदमी कर रहे थे। वे मुझे लेकर उस हॉल के मुख्य प्रवेश द्वार पर गये तथा द्वारपाल से कहा - "ये अपने आदमी हैं।" और न जाने उससे क्या बात किये और मुझे भीतर जाने कि अनुमति मिल गयी। प्रवेश-पत्र आदि मुझे नही दिया गया। उस समय भी प्रवेश-पत्र अवश्य होता होगा - यह मेरा अनुमान है। अनुशासन वहां अत्यधिक था तथा बाहरी व्यष्टि का प्रवेश वर्जित था। मैं जब भीतर हॉल मे गया तो देखा वह खचाखच भरा हुआ है। समय दिन के करीब एक-दो बजे के बीच का था। लोग-बाग बाबाऽ बाबाऽ कर रहे थे। गीत भी बाबा के ही गाये जा रहे थे, चर्चा भी बाबा की ही हो रही थी। सारा वातावरण बाबामय बन चुका था। मुझे बड़ा अजीब लगा वह माहौल। मैंने सोचा ...... वहाँ भगवान राम, कृष्ण, शिव, काली, आदि देवी देवताओं के भजन गाये जा रहे होंगे। प्रवचन उन पर हो रहा होगा। लेकिन यहाँ तो उल्टा हाल है। इन देवी देवताओं का नाम .... भी यहाँ कोई नही है। केवल लोग बाबाऽ बाबाऽ की रट लगाये जा रहे है।
एक मार्गी से पूछ बैठा कि क्या यही बाबा हैं?
मालूम् पड़ रह था कि बाबा के नाम के बाद उनके दिलोदिमाग पर अन्य किसी के लिये जगह बची ही नही थी। वहाँ उनके मन पर केवल बाबा थे तथा सभी बाबामय बने हुए थे। मैंने सोचा यह कैसे बाबा हैं रे भाई जो भगवान, देवी देवताओं से भी ऊपर हैं? यह तो व्यष्टि पूजा है| यहाँ तो लोग भगवान को छोड़ व्यष्टि पूजा करते हैं| यह मुझे पसंद नहीं आया, फिर भी हॉल में बैठा रहा| कुछ देर के बाद मंच पर जहाँ एक आसन (चौकी) लगा हुआ था तथा उस पर साफ – सुथरा उजले रंग का बिछावन तथा मसलन्द रखा हुआ था – एक भव्य और सौम्यता की प्रतिमूर्ति गौरवर्ण अधेड़ उम्र के एक व्यष्टि आसीन हुए| ये व्यष्टि उजले रंग की धोती तथा कमीज धारण किये हुए थे तथा जहाँ तक मुझे स्मरण है – वे चश्मा भी लगाये हुए थे| मैंने सोचा की यह कोई दुसरे व्यष्टि है - बाबा नहीं है| लेकिन दुसरे ही क्षण मैंने अनुमान लगाया की शायद यही बाबा है| संदेह का कारण यह था की मैंने बाबा की कल्पना साधू सन्यासी के रूप में की थी| यद्यपि उनके आने के पूर्व “श्री श्री आनंदमूर्ति जी की जय, योगिराज श्री श्री आनंदमूर्ति जी की जय” आदि नारे लगे| लेकिन हम सोच रहे थे की भक्तगण ऐसे ही जोश में नारे लगा रहे हैं| खैर, बाबा आयें| उनके आसन ग्रहण करने के बाद हॉल में सन्नाटा छा गया| कही कोई चु-चा की आवाज़ नहीं थी| सभी लोग उन्ही को देख रहे थे| मुझसे नहीं रहा गया| मेरे मन में अभी भी यह विचार मुर्खतापूर्ण ढंग से उठ ही रहा था की ये बाबा ही है या अन्य कोई? मैं अपने को रोक नहीं सका तथा बगल में बायीं ओर स्थित एक मार्गी से पूछ बैठा की क्या यही बाबा हैं ?
बाबा ने मेरे जैसे नाकाबिल को भी अपने परामाश्रय में लेकर धन्य-धन्य कर दिया|
उसने उत्तर देने के बजाय प्रतिप्रश्न किया – “आपने किससे दीक्षा ली है?” मैंने कहा – “दीक्षा क्या?” इस पर उसने कहा – “आपके आचार्य कौन हैं?” मैंने कहा “क्या आचार्य?” तब उसने भवन के मुख्य दरवाज़े की ओर इशारा कर कहा – “वहां चलें जाइये|” मैं उठ कर गेट पर चला आया| मैनें नही समझा की वह मुझे बाहर निकल जाने के लिए वहां भेज रहा है| और आराम से मुझे हॉल से बाहर कर दिया गया| इस तरह बाहर हो जाने पर मैं अन्दर ही अन्दर अत्यधिक क्रुद्ध हुआ| यह कौन सा सत्संग है जहाँ से बाहरी लोगों को भगा दिया जाता है| अरे सत्संग में तो लोगों को बुलाया जाता है की अच्छी-अच्छी बातें लोग सुने| और यहाँ तो उल्टा ही हाल है| बाबा को तो सोचना चाहिए की ज्यादा से ज्यादा लोग उनका प्रवचन सुने, दर्शन करें| लेकिन यहाँ तो अजीब स्थिति है भाई| नहीं मै चुप नहीं बैठूँगा| बाबा के पास इसके लिए अवश्य विरोध पत्र भेजूंगा और लिखूंगा की वे अपने सत्संग में यह प्रावधान रखे की बाहरी (अशिष्य) लोग भी उनका प्रवचन-लाभ करें| यह सत्संग में जो नियम चल रहा है – वह सरासर गलत है | अभी तक किसी भी साधू-सन्यासी ने इस तरह का नियम नहीं चलाया है| खैर, आजतक वह ‘विरोध-पत्र’ कागज़ के पन्ने पर स्याही से लिखकर मैं बाबा का पास तो नहीं भेज सका, लेकिन अपने ह्रदय पटल पर उसे लिख कर अवश्य टांग दिया तथा मन ही मन बाबा को वह सुना भी देता| आज जब मैं उस विरोध पत्र का स्मरण करता हूँ, तब सोचता हूँ की बाबा भगवान ने मेरे ... में उसे स्वीकार कर लिया था और मेरे जैसे नाकाबिल को भी अपने परामाश्रय में लेकर धन्य-धन्य कर दिया| मैं उन मार्गी भाइयों का ऋणी हूँ जिन्होंने नियम से हट कर मुझे परमपिता बाबा के दर्शनार्थ हॉल में पहुँचाया तथा बाहर भी करवा दिया| यदि उन दोनों की कृपा से हॉल के अन्दर नहीं जाता तथा बाहर नहीं निकाल दिया जाता, तो न प्रभु जी के पावन दर्शन होते और न परमाश्रय ही पाता| इस तरह उन्होंने अनजाने ही मेरा महानतम उपकार कर दिया|
परम प्रभु, बाबा चरण में
देवकुमार
Note: This above story was narrated by Dev Kumar ji. We are very grateful to Shrii Bhakti for his immense contribution of putting the hardly legible handwritten material into a usable electronic format. Without his efforts it would not have been possible to publish this story.
“Everything in this universe is moving. The hours, days, human beings, stars, planets, nebula – all are on the move. Movement is a must for all, there is no scope for its cessation. The path of movement is not always smooth or strewn with flowers nor is it always beset with thorns or encumbered with violent clashes. According to the nature of the path, human beings will have to prepare themselves and move courageously. In that movement alone lies the very essence of life.”
Note: The above is one of Baba’s original Ananda Vaniis. These original and true Ananda Vaniis are unique, eternal guidelines that stand as complete discourses in and of themselves. They are unlike Fake Ananda Vaniis which are fabricated by most of the groups - H, B etc.
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1. Beginning Quote: Namby-pamby devotee means no devotion
2. Bangla Quote: এ ধারণা একটা মানসিক ব্যাধি ছাড়া আর কিছুই নয়
3. Posting: मेरा प्रथम बाबा दर्शन
4. Nobody can stay here... - Ananda Vanii
5. Links
Namby-pamby devotee means no devotion
Baba says, "You must continue doing good to society, and at the same time must fight against the bad...On the path of dharma, one is not only to do noble deeds; one must also fight against the dishonest people both are virtuous actions. There are many good people in the society - noble people engaged in noble deeds - who are not ready to fight against wrongs and injustices. This sort of passive benevolence does not really promote the cause of human progress in the world. What is desirable is to acquire virtue by doing noble deeds and fighting against all sins and crimes. Both are mandatory, both an integral part of dharma." (1)
Note: If we follow Baba's above mandate our organisation will be free from all kinds of negativity. Stagnant minded people will not get the opportunity to pollute Baba's ideology by imposing their dogma.
Reference
1. Ananda Vacanamrtam - 8, p. 50-51
== Section 2
==
এ ধারণা একটা মানসিক ব্যাধি ছাড়া আর কিছুই নয়
“যে একটা বিশেষ গোষ্ঠী, ৰাকী সমস্ত মানুষের, বা ৰাকী সমস্ত জীব-জন্তুর উপর শোষণ করে চলেছে | অথবা, একটা বিশেষ গোষ্ঠী, আর একটা বিশেষ গোষ্ঠীর উপর অত্যাচার শোষণ করে চলেছে | এমন আমরা দেখতে পাই অনেকে ভাবে যে “তারা ৰুঝি ঈশ্বরের আশীর্বাদ-পূত জীব | আর ৰাকী জনগোষ্ঠীরা ঈশ্বরের অভিশাপ | তারা অনেকে ভাবে---”যে হেতু মানুষ শ্রেষ্ঠ জীব, সুতরাং ৰাকী জীবেরা কুকুর, ছাগল, গোরু, ভেড়া, তারা ঈশ্বরের অভিশপ্ত | সুতরাং তাদের যত পার, শোষণ করো |” যে হেতু তারা পেছিয়ে পড়ে আছে, তাই ধরে নিতে হৰে | যে হেতু downtrodden, সেই জন্যে ধরে নিতে হৰে, যে ওদের উপর শোষণ করৰার অধিকার, ওদের উপর অত্যাচার করৰার অধিকার | এই সমস্ত আশীর্বাদ-পুষ্ট জীবের আছে | এ ধারণা একটা মানসিক ব্যাধি ছাড়া আর কিছুই নয় |” (1)
Reference
1. ১ জানুয়ারি ১৯৮৪
== Section 3
==
मेरा प्रथम बाबा दर्शन
मेरा प्रथम बाबा दर्शन
मैं जब करीब १७-१८ वर्ष का था, उस समय अपने एक चचेरे भाई के मुख से ‘आनन्दमार्ग’ नाम की एक पुस्तक का नाम सुना| बाद में उनके हाथ में मैंने वह पुस्तक देखी भी| वे मुझसे नहीं बल्कि अपने हम-उम्र के कुछ लोगों से उस पुस्तक की प्रशंसा कर रहे थे| मैं उनकी प्रशंसा या उस पुस्तक की उनके मुख से समीक्षा सुन कर अपनी किसी तरह की धारणा नहीं बना सका| कारण स्पष्ट था| उस समय देवी देवताओं के अलावे परमात्मतत्व-दर्शन की जानकारी हममें नहीं के बराबर थी| इसे इस तरह भी कह सकते है की आम लोगों की ही भांति देवी-देवताओं और परमपुरूष में अन्तर मुझे नहीं मालुम था| मैं उन्हें ही भगवान, परमात्मा समझा करता था| यह विचार कि आज भी समाज में बहुसंख्यक लोग हमारे ही जैसा इनमे अन्तर नहीं जानते – शायद यह गलत नहीं होगा|
खैर, मैंने आनंदमार्ग नाम की पुस्तक का नाम तो सुना, लेकिन, उसके लेखक कौन है, उसमे क्या लिखा है – यह सब न तो किसी ने बताया और न मैंने आम लोगों की तरह यह जानने की ज़रूरत ही समझी| पढ़े-लिखें लोगों के बीच सामान्यतः आज देखा जाता है कि ‘आध्यात्म’ की गहरी जानकारी के सम्बन्ध मे उनकी कोई ख़ास दिलचस्पी नहीं होती| बहुत हुआ तो थोड़ा फूल-माला के साथ जल चढ़ा देना (देवी देवताओं की मूर्तियों पर) या कोई अध्यात्मिक पुस्तक का ‘पाठ’ कर लेना| इसी को वें परमात्म भजन का इतिश्री मान लेते हैं| बहुतों को तो यह भी नहीं आता| वे भोग लिप्सा में ही अपना सब हित समझते हैं| खैर मेरे मन में यह बीज अनजाने में ही अवश्य पड़ गया कि यह अच्छी पुस्तक है अर्थात उसके बारे मे जानना चाहिये। यह समझ कर कि उसमे लिखीं बातों को मैं नही समझ सकता, और इससे भी ज्यादा यह कि पुस्तक के बारे मे अप्ना मन्तव्य व्यक्त करने वाले ’केदार भैया’ से उम्र तथा ज्ञान में बहुत छोटा होने के कारण यह पूछ्ने का मैं साहस भी नही जुटा पाया। यह क्रम कई वर्षों तक चला तथा इस बारे में इस बीच के वर्षों में मुझसे किसी ने चर्चा नही की। लेकिन, यह क्रम टूटा और इस तरह। मेरे गांव मिझौली (जिला भोजपूर, बिहार) में श्री बंशरोपन मिश्र नामक एक् व्यष्टि थें। वे कट्टर स्वतन्त्र्ता सेनानी रह चुके थें। वे थे तो मेरे दूर के रिस्ते मे दादा (पिताजी के चाचा) किन्तु, उन्होने न केवल मुझे पढ़ाया था, बल्कि मेरे वृद्ध पिता जी बचपन मे उनसे विद्यालय मे पढ़े थे। उन्हें लोग ‘पन्डित जी’ के नाम से जानतें थे। निर्धन पन्डित जी के बड़े परिवार मे अन्य कोई धन अर्जन करने वाला नही था। लेकिन, इस क्रान्तिकारी ने इन बाधाओं का ख्याल नही किया और स्वतन्त्रता आन्दोलन के अपनें मिशन में जुटे रहे। उनका यह दृढ़ निश्चय और लगन साधक-जीवन जीने वालों के लिये भी प्रेरणादायी है। पन्डित जी देश की आजादी के पुर्व तथा बाद में भी प्राथमिक शिक्षा मे शिक्षक के रूप में रहे।
शिखा-सूत्र (जनेऊ और टीक) हटाना
देश के स्वतन्त्रता-आन्दोलन की कहानियों को वे प्रायः मुझे सुनाया करते थे। एक दिन वे उन कहानीयों को नही कह कर एक बाबा’ के बारे में कह्ने लगें। उन्होने ’बाबा’ की कई सारी कहानियाँ सुनाई तथा यह भी बताया कि ’बाबा’ जमालपूर (मुंगेर जिला) में रहतें हैं। उनके मुख से बाबा की सत्य आध्यात्म-चमत्कार कथा सुनकर मै भी प्रभावित हुआ। लेकिन मेरे लिये यह सम्भव नही हुआ कि बाबा का दर्शन किया जाय। इसके कारण में एक तो आर्थिक तंगी थी तथा दूसरे मैनें समझा कि साधु-संतों की कड़ी मे यह भी एक बाबा होंगे। पंडित जी ने बताया कि उन्होनें बाबा से दीक्षा ली है और शिखा-सूत्र दोनो को उतार फेंका है। क्योंकि बाबा से दीक्षा लेने पर इनका परित्याग आवश्यक है - उन्होंने भी यह किया। पंडित जी द्वारा शिखा-सूत्र (जनेऊ और टीक) हटा देना और वह भी एक छोटी सी चीज़ ’दीक्षा’ के लिये - मुझे रास नही आया। भला एक ब्राह्मण जिसके लिए शिखा-सूत्र अनिवार्य है, अनिवार्य ही नही - इसी मे उसका ब्राह्मणत्व छिपा है - एक साधारण सी ’दीक्षा’ के लिए इतने महत्वपूर्ण वस्तु का परित्याग कर दे यह उचित है? तब वह ब्राह्मण कहाँ? मैनें इस विषय पर उनसे कुछ तर्क-वितर्क भी किया। किन्तु, क्रांतिकारी पंडित जी अपने निर्णय पर अटल रहे। वे यह सबित करने की कोशिश करते कि उन्होने जो किया - वह ठीक है। एक बात का उल्लेख कर देना यहाँ उचित होगा कि वह यह कि ’दीक्षा’ का अर्थ लोगों की तरह मै भी नही समझ सका। मैने हल्के-फुल्के ढ़ंग से यही अर्थ लगाया कि ये भी ’बाबा के चेला’ हो गये हैं। चेला होने को ही ये दीक्षा कह रहे हैं। वस्तुतः, पंडित जी मे गुरु भक्ति तो थी, किन्तु आध्यात्म-दर्शन की जानकारी न के बराबर थी। वे मुझे दर्शन की बातें युक्ति से नही समझा पाते थे। इधर-उधर की बातों से मुझे समझाने की कोशिश करते। यही पर मुझे ’आनन्दमार्ग’ संस्था की जानकारी हुई। पंडित जी द्वारा बाबा का वर्णन और् किसी आनन्दमार्ग संस्था होने की जानकारी मेरे जीवन मे मील का पत्थर साबित हुई। यहाँ मैं एक बात कहना भूल ही गया। बाबा के बारे मे मैने सुन लिया, वें जमालपूर मे रह्ते हैं तथा आनन्दमार्ग की स्थापना कियें हैं। उनके शिष्य है - यह भी सुन लिया। लेकिन उनका नाम क्या है - यह मैं तब तक भी नही जान पाया था। मैंने उनके स्वरूप की कल्पना की कि वें गेरुआ वस्त्रधारी होंगे, अथवा बड़ी-बड़ी दाढ़ी वाले साधू होंगे। इसी के कारण लोग उन्हे बाबा कह्ते होंगे और उनका नाम भी बाबा हो गया होगा। पंडित जी भी उनका नाम मुझे नही बतायें। पंडित जी द्वारा शिखा-सूत्र का परित्याग मेरे तथाकथित ब्राह्मण बहुल गांव मिझौली मे चर्चा का विषय बन गया था। जो कि उस वातवरण के परिवेश मे स्वभाविक ही था।
केवल लोग बाबाऽ बाबाऽ की रट लगाये जा रहे है।
वह अविस्मरणीय दिवस :- मैंने २३ जनवरी १९६० को पटना मे प्रथम बार नौकरी मे योगदान दिया था। उपरी तल्ले पर मेरा आशियाना तथा नीचे के तल्ले पर भारत सेवक समाज नामक एक संस्था का कार्यालय था। वर्ष संभवतः ईसवी सन् १९६४-६५ रहा होगा। मैं अपने कार्यालय से नीचे किसी कार्यवश उतरा था कि भारत सेवक समाज के एक कार्यकर्ता जो नालन्दा जिला, बिहार के रहने वाले थे (नाम मुझे स्मरण नही) ने मुझसे कहा - "चलिये आपको एक संत का दर्शन कराता हूँ।" मैंने कहा - कि वे कहाँ पर दर्शन करायेंगे? उन्होने कहा - "चलिये न, नजदीक ही मे हैं?" मैं भी जिज्ञासावश चल दिया। वे मुझे नजदीक ही अवस्थित ’लेडी स्टीफेंसन हॉल’ में ले गये। वहाँ देखा कि अच्छी-खासी भीड़ जमा थी। बाहर भी कुछ लोग चहलकदमी कर रहे थे। वे मुझे लेकर उस हॉल के मुख्य प्रवेश द्वार पर गये तथा द्वारपाल से कहा - "ये अपने आदमी हैं।" और न जाने उससे क्या बात किये और मुझे भीतर जाने कि अनुमति मिल गयी। प्रवेश-पत्र आदि मुझे नही दिया गया। उस समय भी प्रवेश-पत्र अवश्य होता होगा - यह मेरा अनुमान है। अनुशासन वहां अत्यधिक था तथा बाहरी व्यष्टि का प्रवेश वर्जित था। मैं जब भीतर हॉल मे गया तो देखा वह खचाखच भरा हुआ है। समय दिन के करीब एक-दो बजे के बीच का था। लोग-बाग बाबाऽ बाबाऽ कर रहे थे। गीत भी बाबा के ही गाये जा रहे थे, चर्चा भी बाबा की ही हो रही थी। सारा वातावरण बाबामय बन चुका था। मुझे बड़ा अजीब लगा वह माहौल। मैंने सोचा ...... वहाँ भगवान राम, कृष्ण, शिव, काली, आदि देवी देवताओं के भजन गाये जा रहे होंगे। प्रवचन उन पर हो रहा होगा। लेकिन यहाँ तो उल्टा हाल है। इन देवी देवताओं का नाम .... भी यहाँ कोई नही है। केवल लोग बाबाऽ बाबाऽ की रट लगाये जा रहे है।
एक मार्गी से पूछ बैठा कि क्या यही बाबा हैं?
मालूम् पड़ रह था कि बाबा के नाम के बाद उनके दिलोदिमाग पर अन्य किसी के लिये जगह बची ही नही थी। वहाँ उनके मन पर केवल बाबा थे तथा सभी बाबामय बने हुए थे। मैंने सोचा यह कैसे बाबा हैं रे भाई जो भगवान, देवी देवताओं से भी ऊपर हैं? यह तो व्यष्टि पूजा है| यहाँ तो लोग भगवान को छोड़ व्यष्टि पूजा करते हैं| यह मुझे पसंद नहीं आया, फिर भी हॉल में बैठा रहा| कुछ देर के बाद मंच पर जहाँ एक आसन (चौकी) लगा हुआ था तथा उस पर साफ – सुथरा उजले रंग का बिछावन तथा मसलन्द रखा हुआ था – एक भव्य और सौम्यता की प्रतिमूर्ति गौरवर्ण अधेड़ उम्र के एक व्यष्टि आसीन हुए| ये व्यष्टि उजले रंग की धोती तथा कमीज धारण किये हुए थे तथा जहाँ तक मुझे स्मरण है – वे चश्मा भी लगाये हुए थे| मैंने सोचा की यह कोई दुसरे व्यष्टि है - बाबा नहीं है| लेकिन दुसरे ही क्षण मैंने अनुमान लगाया की शायद यही बाबा है| संदेह का कारण यह था की मैंने बाबा की कल्पना साधू सन्यासी के रूप में की थी| यद्यपि उनके आने के पूर्व “श्री श्री आनंदमूर्ति जी की जय, योगिराज श्री श्री आनंदमूर्ति जी की जय” आदि नारे लगे| लेकिन हम सोच रहे थे की भक्तगण ऐसे ही जोश में नारे लगा रहे हैं| खैर, बाबा आयें| उनके आसन ग्रहण करने के बाद हॉल में सन्नाटा छा गया| कही कोई चु-चा की आवाज़ नहीं थी| सभी लोग उन्ही को देख रहे थे| मुझसे नहीं रहा गया| मेरे मन में अभी भी यह विचार मुर्खतापूर्ण ढंग से उठ ही रहा था की ये बाबा ही है या अन्य कोई? मैं अपने को रोक नहीं सका तथा बगल में बायीं ओर स्थित एक मार्गी से पूछ बैठा की क्या यही बाबा हैं ?
बाबा ने मेरे जैसे नाकाबिल को भी अपने परामाश्रय में लेकर धन्य-धन्य कर दिया|
उसने उत्तर देने के बजाय प्रतिप्रश्न किया – “आपने किससे दीक्षा ली है?” मैंने कहा – “दीक्षा क्या?” इस पर उसने कहा – “आपके आचार्य कौन हैं?” मैंने कहा “क्या आचार्य?” तब उसने भवन के मुख्य दरवाज़े की ओर इशारा कर कहा – “वहां चलें जाइये|” मैं उठ कर गेट पर चला आया| मैनें नही समझा की वह मुझे बाहर निकल जाने के लिए वहां भेज रहा है| और आराम से मुझे हॉल से बाहर कर दिया गया| इस तरह बाहर हो जाने पर मैं अन्दर ही अन्दर अत्यधिक क्रुद्ध हुआ| यह कौन सा सत्संग है जहाँ से बाहरी लोगों को भगा दिया जाता है| अरे सत्संग में तो लोगों को बुलाया जाता है की अच्छी-अच्छी बातें लोग सुने| और यहाँ तो उल्टा ही हाल है| बाबा को तो सोचना चाहिए की ज्यादा से ज्यादा लोग उनका प्रवचन सुने, दर्शन करें| लेकिन यहाँ तो अजीब स्थिति है भाई| नहीं मै चुप नहीं बैठूँगा| बाबा के पास इसके लिए अवश्य विरोध पत्र भेजूंगा और लिखूंगा की वे अपने सत्संग में यह प्रावधान रखे की बाहरी (अशिष्य) लोग भी उनका प्रवचन-लाभ करें| यह सत्संग में जो नियम चल रहा है – वह सरासर गलत है | अभी तक किसी भी साधू-सन्यासी ने इस तरह का नियम नहीं चलाया है| खैर, आजतक वह ‘विरोध-पत्र’ कागज़ के पन्ने पर स्याही से लिखकर मैं बाबा का पास तो नहीं भेज सका, लेकिन अपने ह्रदय पटल पर उसे लिख कर अवश्य टांग दिया तथा मन ही मन बाबा को वह सुना भी देता| आज जब मैं उस विरोध पत्र का स्मरण करता हूँ, तब सोचता हूँ की बाबा भगवान ने मेरे ... में उसे स्वीकार कर लिया था और मेरे जैसे नाकाबिल को भी अपने परामाश्रय में लेकर धन्य-धन्य कर दिया| मैं उन मार्गी भाइयों का ऋणी हूँ जिन्होंने नियम से हट कर मुझे परमपिता बाबा के दर्शनार्थ हॉल में पहुँचाया तथा बाहर भी करवा दिया| यदि उन दोनों की कृपा से हॉल के अन्दर नहीं जाता तथा बाहर नहीं निकाल दिया जाता, तो न प्रभु जी के पावन दर्शन होते और न परमाश्रय ही पाता| इस तरह उन्होंने अनजाने ही मेरा महानतम उपकार कर दिया|
परम प्रभु, बाबा चरण में
देवकुमार
Note: This above story was narrated by Dev Kumar ji. We are very grateful to Shrii Bhakti for his immense contribution of putting the hardly legible handwritten material into a usable electronic format. Without his efforts it would not have been possible to publish this story.
== Section 4
==
Nobody
can stay here - human beings will have
to move towards Parama Purusa - Ananda Vanii #74
to move towards Parama Purusa - Ananda Vanii #74
“Everything in this universe is moving. The hours, days, human beings, stars, planets, nebula – all are on the move. Movement is a must for all, there is no scope for its cessation. The path of movement is not always smooth or strewn with flowers nor is it always beset with thorns or encumbered with violent clashes. According to the nature of the path, human beings will have to prepare themselves and move courageously. In that movement alone lies the very essence of life.”
Note: The above is one of Baba’s original Ananda Vaniis. These original and true Ananda Vaniis are unique, eternal guidelines that stand as complete discourses in and of themselves. They are unlike Fake Ananda Vaniis which are fabricated by most of the groups - H, B etc.
== Section 5
==
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What to do in these circumstances
Degraded monks are misguiding margiis - DMS
And here are other letters of interest:
Story - reminding oneself
How some did not understand Baba's plan
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