Search This Blog

Wednesday, July 13, 2016

बाबा कथा: मेरी... + How kettle drum ruins kiirtan + 3 more

Baba

This email contains five sections: 1. --
2. Posting: बाबा कथा: मेरी धर्मसमीक्षा
3. PS #0331: तुम्हारे आने की इन्तज़ार में मेरे दिन  बीत रहे हैं।
4. Important Teaching: How kettle drum ruins kiirtan
5. Links

आध्यात्मिक  कथा के चोरों को चेतावनी:-


हमारे नेटवर्क से बाबा की कथाओं की चोरी की जा रही है| चोर चुराई गयी बाबा कथा को अपना कहकर फेसबुक, वाट्सऐप, ब्लॉग, गूगल+, टम्बलर, इत्यादि माध्यमों द्वारा प्रसारित करते है| इस घोर चोरी के कारणवश कई भक्तगण नयी कथाओं को लिखने से कतराते हैं| वे सोचते है कि चोर उनकी कथाओं को चुरा लेगा| ऐसे कुछ ही लोग है जो इस प्रकार चोरी करते हैं| अधिकतर मार्गी  ऐसा सोचेंगे भी नहीं|

निरंतर चेतावनियों के उपरांत भी ये साहित्यिक चोर अपने कृत्यों से बाज़ नहीं आते| मौका मिलने पर कथाएं चोरी कर लेते है परन्तु नयी कथाएं नहीं लिखते|
इसका दुखद परिणाम यह है कि हजारों भक्तों के पास बाबा कथाएं तो है परन्तु लेखकों का भीषण अभाव है| यदि कथाओं को समय रहते नहीं लिखा गया, तो कालांतर में ये भक्त इस संसार को छोड़ कर चले जायेंगे, और उनकी कथाएं सदा के लिये अनकही रह जाएँगी|

== Section 2: Main Topic ==

बाबा कथा: मेरी धर्मसमीक्षा

बाबा
नमस्कार,

हमें भी धर्मसमीक्षा के लाइन लगा दिया गया। यह बाबा के कमरे में हो रही थी। तथा वही पर एक लम्बी कतार लगी हुई थी। बाबा के कमरे में एक साथ आठ - दस आदमी बैठते थे। जब मैं अपनी बारी में बाबा भगवान के कमरे में गया तो वहाँ का दृश्य देखकर मन में कहा - “हे परमात्मा, आज मालुम पड़ता है कि हमारा भी उद्धार हो जायेगा|” देखा, बारी – बारी से बाबा भगवान एक – एक को अपने सामने करते है। उनसे प्रभुजी पूछते हैं कि उसने मार्ग का क्या कार्य किया है? वह कहाँ से आया है, क्या नाम है है? इत्यादि। फिर उसने समाज में यदि कोई अनैतिक काम किया है तो सबों के सामने कह देते है या फिर उससे पूछते है कि क्या वे (बाबा) सबके सामने उसके कुकृत्य को कह दें? फिर उसको बहुत डाँट पिलाते हैं। साधक द्वारा गलती मानने पर और फिर न करने की शपथ पर बाबा प्रभु तुरंत ही नवनीत की भाँति हो जाते है। उसे प्यार करते है, फिर उसके रोग के बारे में पूछते है। जिस रोग को साधक नहीं भी जानता है – प्रभु जी उसे भी बताते है और बताते है उसकी दवा इत्यादि। फिर, प्यार से उसे विदा देते हैं। साधक के  अवगुण बताने के बाद, बाबा देखते यदि वह साधक अच्छी साधना करता है, नैतिकवान आदमी है, तो उसे बहुत प्यार करते है और उसकी प्रशंसा करते हुए कहते हैं कि वह एक नेक इन्सान है। मैंने देखा कि सभी लोगों से बाबा लगभग इसी तरह पूछते है और डाँटते है, प्यार करते है, दवा और आसन बताते है। वहाँ उपस्थित दो - तीन अवधूत दादा जी लोग उपचार को तुरंत अंकित कर लेते हैं|

बाबा का रुद्र रूप


जब मेरी बारी आयी तो बाबा का रुख बदल गया। वे पालथी मार कर बैठे हुए थे। मैंने जब भी उन्हें बैठे हुए देखा है – इसी प्रकार बैठे देखाते है। उस दिन भी इतनी देर तक बाबा इसी प्रकार बैठे हुए थे। बाबा ने हमसे पुछा – “क्या नाम है? कहाँ से आया है?” इतना तक तो ठीक रहा। लेकिन अबकी बार का प्रश्न मुझे डाँट खिला गया। उन्होंने पूछा – “किस ब्लाक में रहता है?” मैंने तुरंत जवाब दिया – “बाबा, धनबाद ब्लाक में|” उन्होंने डाँटा – “फिर बोलता है धनबाद ब्लाक में|” मै सरकारी ब्लाक की बात बता रहा था। वे बोले – “ठीक से बोलो|” मेरा फिर वही उत्तर। बस - बाबा बिगड गये। उन्होंने पुछा – “मार्ग का काम किया है?” मैं – “नहीं बाबा|” अबकी बार तो वे असामान्य से हो गए। “कौन इसे मेरे पास भेजा है?” ले जाओ इसे। यह कहाँ रहता है और कहाँ इसे मार्ग की ड्यूटी दी गयी है?” वास्तव में मैं धनबाद बेबेकारकर बाँध मोहल्ला में रहता था, और दादाजी लोगों ने मुझे केन्दुआ-करकेन्द, जो धनबाद से दूर है, – वहां पर  मुझे ड्यूटी दे दी थी। मैंने उन्हें मना किया और आग्रह किया कि हम जहाँ रहते है उसी के आसपास हमारी ड्यूटी दी जाय। लेकिन वे नहीं माने और मेरी ड्यूटी वहीँ केन्दुआ-करकेन्द रखी गयी। बाबा ने हमसे ड्यूटी - स्थान के बारे में पूछा भी नहीं। न ही हमने ही, उनको इस विषय में बताया ।

मेरे नेत्र उस समय अश्रु बहा कर मेरी


बल्कि अन्तर्यामी प्रभुजी स्वयम् ही यह सब बोलने लगे। डाँट खाकर वापस चलने से पहले मैंने बाबा को साष्टाँग किया। साष्टाँग के समय देखता हूँ कि जहाँ मेरा जमीन पर सिर है, ठीक उसी के पास बाबा भगवान के अमृतरूप चरण विराज रहें हैं। प्रभुजी अब तक की अपनी पालथी को तोड़कर चरण नीचे मेरे सिर के पास लटकाकर बैठे हुए थे। उनके चरणों को देखकर भी मुझे महापवित्र चरणरज लेने की नहीं सूझी। स्मरण ही नहीं था – इस विषय में। लेकिन करुणामय बाबा ही साष्टाँग से उठने के “ठीक पहले” मुझे अमृतमय चरणरज लेने के लिए स्मरण दिला दिए। मैंने तो अपने दोनों हाथों से उनका पवित्रतम चरण रज लिया और उन्हें अपने सिर और सारे शरीर और मानसिक रूप से ही सही मन में भी लगाया। और उन्हें पवित्र ही नहीं, पवित्रतम कर दिया। मेरे नेत्र उस समय अश्रु बहा कर मेरी अन्तः वाणी को प्रकट कर रहे थे। मैं धन्य – धन्य हो गया था, क्योंकि हरिजी ने स्वयम् कृपा करके मुझे चरणरज देकर कृतार्थ किया था। अपनी उस खुशी को यहाँ व्यक्त करने में मैं असमर्थ हूँ। साधकगण उस खुशी का कुछ अंदाज लगा सकते हैं|

बाबा का चरणरज लेकर और शरीर – मन में लगाकर जब मैं उनके कमरे से बाहर निकला, तो यहाँ बाहर के वातावरण का मुझे कोई एहसास नहीं था। अब तो यह समझिये कि धर्मंसमीक्षा के प्रभारी अवधूत दादा मुझे केवल ‘मारे नहीं’। इतनी डाँट पिलाई, इतनी डाँट पिलाई कि भई, अब हम उसे कैसे कहें? बहुत डाँटा था उन्होंने मुझे। लेकिन मैं उन्हें कैसे समझाता कि हम तो धर्मंसमीक्षा के उद्देश्य से चले ही नहीं थे – मेरा वह उद्देश्य नहीं था तो फिर वह बाबा प्रभु से होती कैसे? उनसे जो माँगा जाता है, वही न प्रभुजी देते है? मैंने चरणरज माँगा था और हरिजी ने उसे दे दिया।

परम प्रभु, बाबा चरण में
देवकुमार

Shrii Bhakti jii presents this story:
- We are very grateful to Shrii Bhakti for his immense contribution of putting the hardly legible material into a usable electronic format. Without his efforts it would not have been possible to publish this story. - Eds


~ Legal Notice ~
© 2016 Ananda Marga Universal Forum. All rights reserved. Ananda Marga Universal Forum content is the intellectual property of Ananda Marga Universal Forum or its third party content providers. Ananda Marga Universal Forum shall not be liable for any errors or delays in content, or for any actions taken in reliance thereon. Any copying, republication or redistribution, part or full, of Ananda Marga Universal Forum content, including by framing or similar means, is against the court of law and expressly prohibited without the prior written consent of Ananda Marga Universal Forum.

*        *        *

The below sections are entirely different topics, unrelated to the above material.
They stands on their own as points of interest.

*        *        *


== Section 3: Prabhat Samgiita ==

तुम्हारे आने की इन्तज़ार में मेरे दिन  बीत रहे हैं।

प्रभात संगीत 0331, तोमारइ भुवने, तोमारइ भवने....
भावार्थ
बाबा, हे परमपुरुष! तुम्हारे रचे विश्व में, तुम्हारे घर में बैठे हुए, तुम्हारे दिव्य आगमन की इन्तज़ार  में मेरे दिन निकलते जा रहे हैं। तुम्हारी याद में, तुम्हारे चलने की आवाज़ से अंधेरी रातों में भी प्रकाश  चमकता है।

बाबा, तुम्हारे रूपरंग से, तुम्हारी सुगंध से, तुम्हारी कृपा वर्षा से, तुम्हारे स्नेह से, तुम्हारे वीणा के रसीले स्वरों वाले गीत से, तुम्हारी मधुर मुस्कान से, मेरे निराश  जीवन में आशा जाग उठती  है।

तुम्हारे पवित्र स्पर्श से आनेवाली फूलों की सुगंध से, मेरा जीवन आनन्द से भर गया है। हे परमपुरुष बाबा! मैं केवल तुम्हीं को चाहता हॅूं। तुम्हारे आने की इन्तज़ार में मेरे दिन  बीत रहे हैं। (1)

Reference
1. Trans: Dr. T.R. Sukul


== Section 4: Important Teaching ==

How kettle drum ruins kiirtan

Baba says, "It is advisable to play some instrument during kiirtana. A mrdanga [a kind of drum] or some similar instrument should be used , but one should not play any heavysounding instrument like a dhak [a large drum played with sticks], a dhol [a loud drum] or a gong. The mind prefers to hear a sweet sound, like that of the mrdanga, than a harsh sound. Some time ago I mentioned that Bhola Mayra said that when the cawing of crows and the beating of drums stop, human ears get some relief. People do not like to hear such harsh, unpleasant sounds. The sound of the mrdanga may not be perfect, but it has one quality: it is very sweet. Thus, whenever a distracted mind hears the sweet music of a mrdanga, it returns to the proper place. A remarkable science lies in kiirtana." (1)

Note: Here are two points regarding Baba's above teaching:
(a) During kiirtan, the mind becomes sentient and does not appreciate rajasik sounds.
(b) During kiirtan, sometimes many indriyas are involved: The mouth, ears, hands, feet, nose, eyes, and tongue. When the indriyas are involved in this way, they help keep the mind focused and bring the mind back when it runs away. Here is the philosophical and practical explanation.

In general, the mind runs towards external physicality via the indriyas, i.e. 10 motor and sensory organs. So when those indriyas are fully involved in a spiritual endeavour like kiirtan, then the mind is forced to engage in kiirtan via one or another organ. The mind always wants to run - either by thinking a disparate thought or by stimulus received via the organs. As Baba explains above, when the organs are positively involved in a devotional practice like kiirtan, then if the mind wanders away from the kiirtan those organs will help bring the mind back to a spiritual flow.

For instance, let's say someone doing kiirtan starts thinking about the market and what they will purchase there. Yet when the sweet sound of the mrdangam is received via the sensory organs, i.e. the ears, then that sound will bring the mind back the devotional ideation of the kiirtan.

The mind can think any stray thought at any time but if the indriyas are engaged in a spiritual manner, then that will help bring the mind back. That is the special import of singing and dancing kiirtan, along with the sounds of the mrdangam and other low-pitch sentient musical instruments.

Reference
1. Ananda Vacanamrtam - 8, p. 13-14


== Section 5: Links ==

SUBJECTS TOPICS