Baba
This email contains five sections:
1. Important Teaching: Religious exploiters and AMPS
2. PS #3644: The era of animality has gone and divinity has ascended
3. Important Teaching: Dogma means no logic but forced to follow....
4. PS #0312: जब तुम मेरे मन में आ जाओगे तो मेरे मन का अंधेरा
5. Links
Namaskar,
Since ages religious exploiters, priests, mullahs, pujaris, and so-called monks have misguided society. For example, in India, people were indoctrinated into the idea that family people cannot learn higher meditation. Those priests misguided the common mass by giving a false definition of brahmacarya. Similarly, the world over, priests became the middle man between God and the people. To root out this dogma, Ananda Marga ideology has been given. But in our AMPS organisation, the same type of priestocracy dogmas were injected after 1990:
(a) Puppets were made into tattvikas and family acaryas.
(b) The true role of family acaryas was snatched away by group leader. Prior to 1990, all kinds of social ceremonies were conducted by family people / family acaryas, but no longer. And in the past family people were purodhas on top boards, and that too has essentially vanished. There is a litany of other injustices that have put in vogue.
This is the hint that we should be aware of religious cheats - in any religion as well as within the bhagavad dharma of Ananda Marga. That is what Baba is guiding us about in His above teaching.
Ananda Marga philosophy states, “It is most important for human beings to move in the realm of spirituality, more than in other realms. Human beings should have followed the proper teachings, but unfortunately, previous teachers did not teach us in this way, and that is why there has been such great chaos in the social and psychic spheres.”
“As a result of these improper teachings, many family people have suffered from the inferiority complex that as they were living mundane lives, they were sinners. This sort of idea was firmly implanted in the minds of family people as the result of false propaganda by the opportunistic exploiters, who wanted to protect their vested interests in the spiritual sphere. These exploiters also did not want to disseminate dharma among the masses at all, for they feared that the spread of dharma would undermine their vested interests.”
“But Ananda Marga is for one and all: I wish to disseminate dharma among all.” (1)
In Him,
Visnuma’ya’
Reference
1. A Few Problems Solved - 3, Verse, Mythology, History and Itihása
~ Legal Notice ~
© 2016 Ananda Marga Universal Forum. All rights reserved. Ananda Marga Universal Forum content is the intellectual property of Ananda Marga Universal Forum or its third party content providers. Ananda Marga Universal Forum shall not be liable for any errors or delays in content, or for any actions taken in reliance thereon. Any copying, republication or redistribution, part or full, of Ananda Marga Universal Forum content, including by framing or similar means, is against the court of law and expressly prohibited without the prior written consent of Ananda Marga Universal Forum.
The era of animality has gone and divinity has ascended
“Áshár pasará sahasá elo,álor túfán nikat́e elo,..” (Prabhat Samgiita #3644)
Purport:
After ages of gloom & hopelessness, the basket of hope came suddenly - i.e. Parama Purusa, the embodiment of Divine Effulgence, has taken advent;. The cyclone of divine effulgence has come close. His divine effulgence is immense, like a huge mountain covering the entire earth. The whole world is inundated with the flood of divinity.
Today even in remote corners, not even an iota of darkness was left. Not even a tinge of stain remained in anyone's mind. Everyone’s mind has become cleansed and purified. The Supreme Entity, the love personified Parama Purusa with His divine effulgence, has taken advent. He has graciously attracted everyone, and satisfied all their feelings and yearning by the outpouring of love from His heart.
Sadguru Baba blessed those bound and tied up in the deep, dark chasm of cimmerian darkness, and those whose mind had accumulated dogma the size of a mountain. Even they were blessed to open their eyes and look towards the eastern horizon, the rising sun of the dawn, and realize the era of animality was gone and the age of divinity has ascended. Their dogma and staticity vanished away with the advent of the new dawn. All are now basking in His divine grace. Everyone is blessed with the opportunity to look toward that divine radiance.
Baba, the Parama Purusa, with His divine effulgence has come and showered His divine effulgence and graced everyone...
Ananda Marga ideology guides us, “What is dogma? Dogma is also an idea, but there is rigidity of the boundary line. Dogma will not allow you to go beyond the periphery of that boundary line. That is, dogma goes against the fundamental spirit of the human mind.” (1)
Note: Any idea which has a boundary around is a dogma. The sense is that one is not allowed to debate on this idea. Any and all debates are forbidden. For instance, if one religious leader says that the first Sunday of every month one must touch the dog’s tail to get virtue for heaven, then that becomes the rule for that religion. And no one can question it.
Here is another example. A few years ago a discussion was going on about MPD. In trying to defend the existence of mahaprayan, Dada Kalyaneshvarananda responded this is beyond logic and reasoning. By this way, unknowingly he accepted that MPD is a dogma.
Reference
1. Ananda Vacanamrtam - 30, Beware of Dogma
जब तुम मेरे मन में आ जाओगे तो मेरे मन का अंधेरा
और उसमें जमे हुए सब संस्कार मिट जायेंगे।
प्रभात संगीत 0312 एशो गो एशो गो मोर मनेते, सब क्लेश नाश करे आलो झराते...
परिचय- इस गीत में साधना के उच्च स्तर पर पहुंचे भक्त के उन विचारों को बताया गया है जो वह उस स्थिति में अनुभव करता है।
भावार्थ
हे परमपुरुष! कृपा कर आइये, मेरे मन में आकर सभी दुखों को दूर करते हुए अपने दिव्य प्रकाश की बौछार डालिये। जब तुम मेरे मन में आ जाओगे तो मेरे मन का अंधेरा, उसमें लगे अनेक जन्मों के दाग और जमे हुए सब संस्कार मिट जायेंगे। तीनों प्रकार के दुःख भौतिक, मानसिक और आध्यात्मिक, सभी दूर हो जायेंगे। तुम्हारी कृपा से मेरा मन गहरी साधना में जाकर अंत में प्रकाश के संसार में अर्थात सत्यलोक में पहुंच जायेगा।
यह संसार तुम्हारे घुंघुरुओं की आवाज से लबालब भर गया है। तुम्हारी पुकार से मेरे खून की हर बूँद ख़ुशी से पागल हो गई है। हे परमपु्रुष! कृपा कर मेरे ध्यान में, मेरे गुरुचक्र अर्थात शतदल कमल पर हमेशा बैठे रहिये।
हे परमपुरुष बाबा! तुम्हारी मुस्कान देखकर सभी आनन्द से एकसाथ गाने लगते हैं। तुम्हारी आकर्षक मुस्कान से मेरा मन रुपी मोर सैकड़ों प्रकार से नाचने लगता है। हे परम पुरुष! कृपा कर मेरी ओर ताकिए ! मेरे मन और हृदय में देखिये।
The following are summaries in Hindi of Guru's teachings.
टिप्पणी
A - तीन प्रकार के दुख कौन है।
“दुखों के तीन प्रकार आधिभौतिक, आधिदैविक और आध्यात्मिक हैं। साॅंसारिक सभी बंधन जैसे भौतिक, आर्थिक, सामाजिक, राजनैतिक, कृषि, व्यापार, और वाणिज्य अदि से सम्बंधित सभी आधिभौतिक बंधन कहलाते हैं। आधिदैविक बंधनों में मानसिक विभ्रम, तानसिक तनाव और संदेह , मानसिक उलझन, लघुता और श्रेष्ठता की भावना, और अभुक्त संस्कार या प्रारब्ध अदि से सम्बंधित सभी बंधन आते हैं। इकाई चेतना, परमचेतना और तत्संबंधी भावना और उस परम सत्ता को न पाने के कारण उत्पन्न आक्रोश और वेदना अदि से सम्बंधित सभी बंधन आध्यात्मिक बंधन कहलाते हैं।”
“आधिभौतिक बंधनों को तीन भागों में बाॅंटा गया है, भावगत, कालगत और आधारगत। मनुष्यों के लिये भावगत बंधन अधिक सताते हैं इसके अंतर्गत सभी प्रकार की भावजड़ता का समावेष रहता है जो आध्यात्मिक प्रगति में बाधक बनते हैं जैसे , प्रायः कहा जाता है यह नहीं करो वह करो नहीं तो यह नुकसान हो जायेगा , यह विचार छोटी उम्र से ही मन में लाद दिये जाते हैं और अकारण ही मानसिक रूप से दवाव बनाकर वे प्रगति में बाधा बनते हैं, रूढ़िवादी अवैज्ञानिक विचार भी इसी प्रकार भय पैदा कर प्रभाव डालते हैं। सच्चाई जानकर भी इनके विरुद्ध आवाज उठाने से डर लगता है, जब पता लगता है कि अब तक इनके पालन से नुकसान ही हुआ है तो दुख होता है कि इतना समय और षक्ति व्यर्थ ही गई। समय के अनुसार भी अनेक प्रकार के परिवर्तन होते हैं जो मन पर प्रभाव डालते हैं इन्हें कालगत बंधन कहते हैं। इसमें जब लोगों की भावनायें कुंठित कर दी जाती हैं तो वे स्थान समाज और देश तक को त्याग कर चले जाते हैं और जब वेदना असहनीय हो ताजी है तो आत्महत्या भी कर बैठते हैं। व्यक्तिगत जीवन ते सूक्ष्म आदर्ष को अपनाने और सार्वभौमिक विचारों को मन में रखने पर इन सब दुखों से दूर हुआ जा सकता है। आध्यात्मिक बंधन वे हैं जो मन में यह विचार पैदा करते हैं कि यद्यपि परम पुरुष मेरे अपने हैं परंतु वह मुझे क्यों नहीं मिल रहे हैं , मेरा मन और हृदय उस परम मन से दूर क्यों बना हुआ है उसमे मिलता क्यों नहीं है। परम पुरुष से न मिल पाने का दुख आध्यात्मिक बंधन कहलाता है।” (1)
B - नूपुर:”-इसका शाब्दिक अर्थ है नृत्य या संगीत के कार्यक्रम में हाथ या पैर में बाॅंधेजाने वाले घुंघरु, परंतु इसका अर्थ यह नहीं है कि परमपुरुष पैरों में घुंघरु बाॅंध कर स्टेज पर नाच रहे हैं ए जैसे कि अन्य नर्तक । यहाॅं इसका मतलब है उनके दिव्य घुंघरु की दिव्य ध्वनि अर्थात् ओंकार ध्वनि जिसके छः स्तर हैं परंतु उसे किसी वाद्ययंत्र से उत्पन्न नहीं किया जा सकता और न ही मानव गले से ही उच्चारित किया जा सकता है जैसे कि अज्ञानी लोग करते हैं। यह किसी भी प्रकार भौतिक जगत से संबंधित नहीं है और न ही किसी विधि से रिकार्ड की जा सकती है और न वाह्य कानों से सुनी जा सकती है,यह कानों का कोई दोष भी नहीं है, यह तो आध्यात्मिक जगत से संबंधित है । इसका प्रमाण यह है कि जब हम अपने कानों को मूंद लेते हैं तो इसका स्वर सुनाई देता है और उच्च स्तर पर साधना के समय भी स्वाभाविक रूप से साधक को ये आनन्ददायी ध्वनियाॅं सुनाई देतीं हैं।जब तक सगुण अवस्था का बोध रहता है ये सुनाई देतीं हैं परंतु निर्गुण अवस्था में कुछ नहीं सुनाई देता। परंतु ध्यान रहे साधना का उद्देश्य इन ध्वनियों को सुनना नहीं है , सच्चा साधक प्रगति के मार्गमें इन्हें अनुभव करता है परंतु यदि इन्हें सुनने का प्रयास किया जाता है तो हमारा मन अपने मंत्र के चिंतन पर से हट जाता है। एकान्त स्थान पर साधना करने पर इसे सुना जा सकता है।” (2)
C - परमपुरुष की पुकार-” परमपुरुष सभी को पुकारते हैं परंतु कोई सुन पाते हैं कोई नहीं, प्रत्येक साधक अपने जीवन के किसी महत्वपूर्ण मोड़ पर इसे अवष्य सुनता है। इस आध्यात्मिक पुकार का पहला अवसर पाॅंच वर्ष की आयु में आता है या फिर किशोरावस्था में अन्यथा प्रौढ़ावस्था में। यह वही अवस्था होती है जब नाम यश और प्रतिष्ठा को भूल कर नसे लगने लगता है कि कोई महत्वपूर्ण कार्य में लग जाना चाहिये। कोई कोई इसे आजीवन नहीं सुन पाते।” (3)
D - परमपुरुष के निहारने का महत्व- परमपुरुष के साधक की ओर निहारने का बहुत महत्व है , यदि किसी साधक को लगता है कि साधना करते समय ध्यान में परमपुरुष उसकी ओर देख रहे हैं तो उनसे निवेदन करना चाहिये कि वे उसकी द्रष्टि उन पर स्थिर करें । इस प्रकार के भाव आने पर आध्यात्मिक उन्नति तेजी से होने लगती है। इस गीत में यही समझाया गया है।
References:
1. Namah Shivaya Shantaya, Shivas Teachings – 2 (continued) (Discourse 13)
2. Ananda Vacanamrtam - 30, The Sound of God
3. Subhasita Samgraha – 1
4. PS Purport and Quotes Trans: Dr. T.R.S.
This email contains five sections:
1. Important Teaching: Religious exploiters and AMPS
2. PS #3644: The era of animality has gone and divinity has ascended
3. Important Teaching: Dogma means no logic but forced to follow....
4. PS #0312: जब तुम मेरे मन में आ जाओगे तो मेरे मन का अंधेरा
5. Links
Religious exploiters and AMPS
Namaskar,
Since ages religious exploiters, priests, mullahs, pujaris, and so-called monks have misguided society. For example, in India, people were indoctrinated into the idea that family people cannot learn higher meditation. Those priests misguided the common mass by giving a false definition of brahmacarya. Similarly, the world over, priests became the middle man between God and the people. To root out this dogma, Ananda Marga ideology has been given. But in our AMPS organisation, the same type of priestocracy dogmas were injected after 1990:
(a) Puppets were made into tattvikas and family acaryas.
(b) The true role of family acaryas was snatched away by group leader. Prior to 1990, all kinds of social ceremonies were conducted by family people / family acaryas, but no longer. And in the past family people were purodhas on top boards, and that too has essentially vanished. There is a litany of other injustices that have put in vogue.
This is the hint that we should be aware of religious cheats - in any religion as well as within the bhagavad dharma of Ananda Marga. That is what Baba is guiding us about in His above teaching.
Ananda Marga philosophy states, “It is most important for human beings to move in the realm of spirituality, more than in other realms. Human beings should have followed the proper teachings, but unfortunately, previous teachers did not teach us in this way, and that is why there has been such great chaos in the social and psychic spheres.”
“As a result of these improper teachings, many family people have suffered from the inferiority complex that as they were living mundane lives, they were sinners. This sort of idea was firmly implanted in the minds of family people as the result of false propaganda by the opportunistic exploiters, who wanted to protect their vested interests in the spiritual sphere. These exploiters also did not want to disseminate dharma among the masses at all, for they feared that the spread of dharma would undermine their vested interests.”
“But Ananda Marga is for one and all: I wish to disseminate dharma among all.” (1)
In Him,
Visnuma’ya’
Reference
1. A Few Problems Solved - 3, Verse, Mythology, History and Itihása
~ Legal Notice ~
© 2016 Ananda Marga Universal Forum. All rights reserved. Ananda Marga Universal Forum content is the intellectual property of Ananda Marga Universal Forum or its third party content providers. Ananda Marga Universal Forum shall not be liable for any errors or delays in content, or for any actions taken in reliance thereon. Any copying, republication or redistribution, part or full, of Ananda Marga Universal Forum content, including by framing or similar means, is against the court of law and expressly prohibited without the prior written consent of Ananda Marga Universal Forum.
== Section
2: Prabhat Samgiita ==
The era of animality has gone and divinity has ascended
“Áshár pasará sahasá elo,álor túfán nikat́e elo,..” (Prabhat Samgiita #3644)
Purport:
After ages of gloom & hopelessness, the basket of hope came suddenly - i.e. Parama Purusa, the embodiment of Divine Effulgence, has taken advent;. The cyclone of divine effulgence has come close. His divine effulgence is immense, like a huge mountain covering the entire earth. The whole world is inundated with the flood of divinity.
Today even in remote corners, not even an iota of darkness was left. Not even a tinge of stain remained in anyone's mind. Everyone’s mind has become cleansed and purified. The Supreme Entity, the love personified Parama Purusa with His divine effulgence, has taken advent. He has graciously attracted everyone, and satisfied all their feelings and yearning by the outpouring of love from His heart.
Sadguru Baba blessed those bound and tied up in the deep, dark chasm of cimmerian darkness, and those whose mind had accumulated dogma the size of a mountain. Even they were blessed to open their eyes and look towards the eastern horizon, the rising sun of the dawn, and realize the era of animality was gone and the age of divinity has ascended. Their dogma and staticity vanished away with the advent of the new dawn. All are now basking in His divine grace. Everyone is blessed with the opportunity to look toward that divine radiance.
Baba, the Parama Purusa, with His divine effulgence has come and showered His divine effulgence and graced everyone...
== Section 3:
Important Teaching ==
Dogma means no logic but
coerced to follow silly things
Ananda Marga ideology guides us, “What is dogma? Dogma is also an idea, but there is rigidity of the boundary line. Dogma will not allow you to go beyond the periphery of that boundary line. That is, dogma goes against the fundamental spirit of the human mind.” (1)
Note: Any idea which has a boundary around is a dogma. The sense is that one is not allowed to debate on this idea. Any and all debates are forbidden. For instance, if one religious leader says that the first Sunday of every month one must touch the dog’s tail to get virtue for heaven, then that becomes the rule for that religion. And no one can question it.
Here is another example. A few years ago a discussion was going on about MPD. In trying to defend the existence of mahaprayan, Dada Kalyaneshvarananda responded this is beyond logic and reasoning. By this way, unknowingly he accepted that MPD is a dogma.
Reference
1. Ananda Vacanamrtam - 30, Beware of Dogma
== Section 4:
Prabhat Samgiita ==
जब तुम मेरे मन में आ जाओगे तो मेरे मन का अंधेरा
और उसमें जमे हुए सब संस्कार मिट जायेंगे।
प्रभात संगीत 0312 एशो गो एशो गो मोर मनेते, सब क्लेश नाश करे आलो झराते...
परिचय- इस गीत में साधना के उच्च स्तर पर पहुंचे भक्त के उन विचारों को बताया गया है जो वह उस स्थिति में अनुभव करता है।
भावार्थ
हे परमपुरुष! कृपा कर आइये, मेरे मन में आकर सभी दुखों को दूर करते हुए अपने दिव्य प्रकाश की बौछार डालिये। जब तुम मेरे मन में आ जाओगे तो मेरे मन का अंधेरा, उसमें लगे अनेक जन्मों के दाग और जमे हुए सब संस्कार मिट जायेंगे। तीनों प्रकार के दुःख भौतिक, मानसिक और आध्यात्मिक, सभी दूर हो जायेंगे। तुम्हारी कृपा से मेरा मन गहरी साधना में जाकर अंत में प्रकाश के संसार में अर्थात सत्यलोक में पहुंच जायेगा।
यह संसार तुम्हारे घुंघुरुओं की आवाज से लबालब भर गया है। तुम्हारी पुकार से मेरे खून की हर बूँद ख़ुशी से पागल हो गई है। हे परमपु्रुष! कृपा कर मेरे ध्यान में, मेरे गुरुचक्र अर्थात शतदल कमल पर हमेशा बैठे रहिये।
हे परमपुरुष बाबा! तुम्हारी मुस्कान देखकर सभी आनन्द से एकसाथ गाने लगते हैं। तुम्हारी आकर्षक मुस्कान से मेरा मन रुपी मोर सैकड़ों प्रकार से नाचने लगता है। हे परम पुरुष! कृपा कर मेरी ओर ताकिए ! मेरे मन और हृदय में देखिये।
The following are summaries in Hindi of Guru's teachings.
टिप्पणी
A - तीन प्रकार के दुख कौन है।
“दुखों के तीन प्रकार आधिभौतिक, आधिदैविक और आध्यात्मिक हैं। साॅंसारिक सभी बंधन जैसे भौतिक, आर्थिक, सामाजिक, राजनैतिक, कृषि, व्यापार, और वाणिज्य अदि से सम्बंधित सभी आधिभौतिक बंधन कहलाते हैं। आधिदैविक बंधनों में मानसिक विभ्रम, तानसिक तनाव और संदेह , मानसिक उलझन, लघुता और श्रेष्ठता की भावना, और अभुक्त संस्कार या प्रारब्ध अदि से सम्बंधित सभी बंधन आते हैं। इकाई चेतना, परमचेतना और तत्संबंधी भावना और उस परम सत्ता को न पाने के कारण उत्पन्न आक्रोश और वेदना अदि से सम्बंधित सभी बंधन आध्यात्मिक बंधन कहलाते हैं।”
“आधिभौतिक बंधनों को तीन भागों में बाॅंटा गया है, भावगत, कालगत और आधारगत। मनुष्यों के लिये भावगत बंधन अधिक सताते हैं इसके अंतर्गत सभी प्रकार की भावजड़ता का समावेष रहता है जो आध्यात्मिक प्रगति में बाधक बनते हैं जैसे , प्रायः कहा जाता है यह नहीं करो वह करो नहीं तो यह नुकसान हो जायेगा , यह विचार छोटी उम्र से ही मन में लाद दिये जाते हैं और अकारण ही मानसिक रूप से दवाव बनाकर वे प्रगति में बाधा बनते हैं, रूढ़िवादी अवैज्ञानिक विचार भी इसी प्रकार भय पैदा कर प्रभाव डालते हैं। सच्चाई जानकर भी इनके विरुद्ध आवाज उठाने से डर लगता है, जब पता लगता है कि अब तक इनके पालन से नुकसान ही हुआ है तो दुख होता है कि इतना समय और षक्ति व्यर्थ ही गई। समय के अनुसार भी अनेक प्रकार के परिवर्तन होते हैं जो मन पर प्रभाव डालते हैं इन्हें कालगत बंधन कहते हैं। इसमें जब लोगों की भावनायें कुंठित कर दी जाती हैं तो वे स्थान समाज और देश तक को त्याग कर चले जाते हैं और जब वेदना असहनीय हो ताजी है तो आत्महत्या भी कर बैठते हैं। व्यक्तिगत जीवन ते सूक्ष्म आदर्ष को अपनाने और सार्वभौमिक विचारों को मन में रखने पर इन सब दुखों से दूर हुआ जा सकता है। आध्यात्मिक बंधन वे हैं जो मन में यह विचार पैदा करते हैं कि यद्यपि परम पुरुष मेरे अपने हैं परंतु वह मुझे क्यों नहीं मिल रहे हैं , मेरा मन और हृदय उस परम मन से दूर क्यों बना हुआ है उसमे मिलता क्यों नहीं है। परम पुरुष से न मिल पाने का दुख आध्यात्मिक बंधन कहलाता है।” (1)
B - नूपुर:”-इसका शाब्दिक अर्थ है नृत्य या संगीत के कार्यक्रम में हाथ या पैर में बाॅंधेजाने वाले घुंघरु, परंतु इसका अर्थ यह नहीं है कि परमपुरुष पैरों में घुंघरु बाॅंध कर स्टेज पर नाच रहे हैं ए जैसे कि अन्य नर्तक । यहाॅं इसका मतलब है उनके दिव्य घुंघरु की दिव्य ध्वनि अर्थात् ओंकार ध्वनि जिसके छः स्तर हैं परंतु उसे किसी वाद्ययंत्र से उत्पन्न नहीं किया जा सकता और न ही मानव गले से ही उच्चारित किया जा सकता है जैसे कि अज्ञानी लोग करते हैं। यह किसी भी प्रकार भौतिक जगत से संबंधित नहीं है और न ही किसी विधि से रिकार्ड की जा सकती है और न वाह्य कानों से सुनी जा सकती है,यह कानों का कोई दोष भी नहीं है, यह तो आध्यात्मिक जगत से संबंधित है । इसका प्रमाण यह है कि जब हम अपने कानों को मूंद लेते हैं तो इसका स्वर सुनाई देता है और उच्च स्तर पर साधना के समय भी स्वाभाविक रूप से साधक को ये आनन्ददायी ध्वनियाॅं सुनाई देतीं हैं।जब तक सगुण अवस्था का बोध रहता है ये सुनाई देतीं हैं परंतु निर्गुण अवस्था में कुछ नहीं सुनाई देता। परंतु ध्यान रहे साधना का उद्देश्य इन ध्वनियों को सुनना नहीं है , सच्चा साधक प्रगति के मार्गमें इन्हें अनुभव करता है परंतु यदि इन्हें सुनने का प्रयास किया जाता है तो हमारा मन अपने मंत्र के चिंतन पर से हट जाता है। एकान्त स्थान पर साधना करने पर इसे सुना जा सकता है।” (2)
C - परमपुरुष की पुकार-” परमपुरुष सभी को पुकारते हैं परंतु कोई सुन पाते हैं कोई नहीं, प्रत्येक साधक अपने जीवन के किसी महत्वपूर्ण मोड़ पर इसे अवष्य सुनता है। इस आध्यात्मिक पुकार का पहला अवसर पाॅंच वर्ष की आयु में आता है या फिर किशोरावस्था में अन्यथा प्रौढ़ावस्था में। यह वही अवस्था होती है जब नाम यश और प्रतिष्ठा को भूल कर नसे लगने लगता है कि कोई महत्वपूर्ण कार्य में लग जाना चाहिये। कोई कोई इसे आजीवन नहीं सुन पाते।” (3)
D - परमपुरुष के निहारने का महत्व- परमपुरुष के साधक की ओर निहारने का बहुत महत्व है , यदि किसी साधक को लगता है कि साधना करते समय ध्यान में परमपुरुष उसकी ओर देख रहे हैं तो उनसे निवेदन करना चाहिये कि वे उसकी द्रष्टि उन पर स्थिर करें । इस प्रकार के भाव आने पर आध्यात्मिक उन्नति तेजी से होने लगती है। इस गीत में यही समझाया गया है।
References:
1. Namah Shivaya Shantaya, Shivas Teachings – 2 (continued) (Discourse 13)
2. Ananda Vacanamrtam - 30, The Sound of God
3. Subhasita Samgraha – 1
4. PS Purport and Quotes Trans: Dr. T.R.S.
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Section 5: Links ==
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