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Friday, December 11, 2015

Example: wrong things published in Ananda Marga philosophy book + 6 more

Baba

This email contains seven sections:
1. Posting: Example: wrong things published in Ananda Marga philosophy book
2. Bangla Quote: এই দোষগুলো দ্রুত সরে যায়
3. Hindi Quote: कीर्त्तन त्रिताप हारी है
4. PS #4815: O' Parama Purusa, Your graced me in my meditation
5. PS #2020:  कीर्त्तन त्रिताप हारी है
6. Comment: Re: Why this type of puja is dangerous
7. Links


Example: wrong things published in
Ananda Marga philosophy book

Namaskar,
In our Ananda Marga books there are so many errors and flaws made by Tiljala Publication. Here is one example: Read the below and pay particular attention to the words in red. This is how they printed it in the actual book.

"Let me try to explain the nature of the mutual relationship between the microcosm and universal rhythms with a simple analogy. Suppose a young boy is flying a kite high in the sky. It seems the kite has an apparent link with someone on earth, but that is not the fact. The kite has a link with the spindle in the hands of the boy through a thin thread. The kite flies at a certain altitude according to the sweet will of the boy. The microcosm and universal rhythm also are linked by an invisible spiritual bond in exactly the same way. That’s why it is said that microcosms are only granted "dominion status"; whereas a complete independence is vested with the universal rhythm." (1)

The publishers should have printed the paragraph like this (see below)- please pay particular attention to the words in blue:

"Let me try to explain the nature of the mutual relationship between the microcosm and universal rhythms with a simple analogy. Suppose a young boy is flying a kite high in the sky. It seems the kite has no an apparent link with someone on earth, but that is not the fact. The kite has a link with the spindle in the hands of the boy through a thin thread. The kite flies at a certain altitude according to the sweet will of the boy. The microcosm and universal rhythm also are linked by an invisible spiritual bond in exactly the same way. That’s why it is said that microcosms are only granted "dominion status"; whereas a complete independence is vested with the universal rhythm."

This dominion state means that humans are not fully free but somewhat free. In other discourses, Baba has given the analogy of a cow or goat tied on a 100’ rope. That cow or goat has freedom to go wherever it wishes within that dominion of 100'. The cow does not have the ability to go beyond the length of that rope. So it has freedom up to a certain point - not beyond. That is what is meant by dominion state.

The mistake made in the above paragraph is quite clear. The publishers wrote, "It seems like the kite has an apparent link with someone on earth." This is completely wrong. It should be, "It seems like the kite has no an apparent link with someone on earth."

If still this is not clear then write us. Those who apply themselves will easily understand.

in Him,
Pradiip

Reference
1. Ananda Marga Philosophy-4, Individual Rhythm and Universal Rhythm


== Section 2 ==


এই দোষগুলো দ্রুত সরে যায়

“এই ছ’টা দোষ সম্বন্ধে অনেকই অনেক ভেবেছেন | তা, এর জন্যে যে তান্ত্রিক সাধনা-পদ্ধতি শিব আবিষ্কার করেছিলেন, এর জন্য তাণ্ডব নৃত্যের প্রবর্তন শিব করেছিলেন, কারণ তাণ্ডব নৃত্যতে কি হয় ? এই দোষগুলো দ্রুত সরে যায় | বিশেষ করে আলস্য আর দীর্ঘসূত্রতা, খুৰ তাড়া-তাড়ি সরে যায় | তাই মানব জীবনে তাণ্ডবের প্রয়োজনীয়তা অত্যন্ত অধিক |” (1)

Reference
1. MGD, 3 January 1982 Ananda Nagar


== Section 3 ==

कीर्त्तन त्रिताप हारी है 


“तो, मनुष्य में ये जो तीन तरह की तकलीफ़ हैं, इन तीनों तकलीफ़ों से बचानेवाला है कीर्त्तन | क्यों ? न, कीर्त्तन तुम्हें परमपुरुष की ओर चलने में मदद करेगा | इसलिए, गपशप में time बरबाद नहीं करके, वृथा काम में time बरबाद नहीं करके, जब मौका मिल गया---दो मिनट, पाँच मिनट, कीर्त्तन करो | क्योंकि कीर्त्तन केवल साधना में मदद करेगा, सो नहीं | तुम्हारे मन को भी निर्मल करेगा | और, तुम हमेशा महसूस करते रहोगे, कि तुम छोटे आदमी नहीं हो, तुम हीन-नीच नहीं हो, तुम तुच्छ नहीं हो | कीर्त्तन हमेशा तुम्हें याद दिलाता रहेगा कि तुम परमपुरुष की सन्तान हो, परमपुरुष के बेटे हो, परमपुरुष की बेटियाँ हो | इसलिए, स्थान-काल-पात्र का कोई विचार नहीं; विद्या-अविद्या का कोई विचार नहीं; विद्वान-मूर्ख का कोई विचार नहीं; काले-गोरे का भी कोई विचार नहीं | जब जहाँ मौका मिल गया, जब जिस समय में मौका मिल गया, कीर्त्तन करो |”

[यह बाबा के कैसेट से सीधे लिखा गया, बाबा का यह असली प्रवचन, अमृतोपदेश है। आनन्द मार्ग हिन्दी पुस्तकों में छपे प्रवचन तो नक़ली प्रवचन हैं, असली नहीं] (1)

Reference
1. हिंदी, अप्रकाशित, 15 May 1982 Calcutta

== Section 4 ==


O’ Parama Purusa, You graced me in my meditation
and then with disdain You left me


"Ámáre phele gele,dhuláy avahele, e jeno jhará phule,karile hatádar,..." (Prabha Samgiita #4815)

Note: Only those who sincerely practice the higher lessons of sahaja yoga meditation can understand this song in the depths of their heart.

Purport:

O’ Parama Purusa, You graced me in my dhyana and then disappeared. With disdain,derision== You left me, leaving me lying there, alone in the dust. You discarded me as if I am just like one wilted flower, this way You ignored me.

O’ my Lord, I was at the altar - at the crown - day and night, always. I was very close to you. And now I have fallen to the ground, covered in the dust. I am all alone.

O’ my Dearmost, You graced me, You were in my heart and You were in my mind - satiating my existence.  O’ the Supreme One, O’ the great ocean of infinite qualities and attributions, You shall remain in my meditation and dhyana forever. You are so gracious.

O’ Parama Purusa Baba, I do not seek anything transitory from You. And even if you give me something mundane, I will not accept it. Those things will not remain forever. O’ my Lord, I have only one singular longing: Please grace me by smiling in my dhyana sadhana O’ Manohar [1].

O’ Parama Purusa You graced me by coming in my dhyana...


Note for Prabhat Samgiita #4815

[1] Manohar: Literally means the mind has been stolen. When Parama Purusa blesses the bhakta by coming very close, then the bhakta’s mind becomes suffused with the thought of Parama Purusa. The sadhaka can think of no other. Only the thought of Parama Purusa is coming in the mind - again and again. In that state, the bhakta’s mind is no longer their own. Their mind is constantly engaged in the thought of Parama Purusa. Hence it is said, the mind has been stolen, i.e. manohar.


== Section 5 ==

हे परमपुरुष! बाबा! मैं यहाॅं इस धरती पर तुम्हारी ख्वाहिश के अनुसार कार्य करने आया हॅूं।


(जो साधना का 6th पाठ नहीं करता, वह यह प्रभात संगीत नहीं समझ सकता )

प्रभात संगीत #2020 एशेछि तोमार इच्छामतो चलिते ,आमार जीवन पण आमार बॉचा मरण आलोय उद्भासिते ....
भावार्थ
हे परमपुरुष! मैं यहाॅं इस धरती पर तुम्हारी ख्वाहिश के अनुसार कार्य करने आया हॅूं। कृपा कर मुझे आशीष दें कि---मैं अपने जीवन के प्रारंभ से अंत तक सभी कार्य तुम्हारे अलौकिक प्रकाश  से प्रकाशित कर सकॅूं। मैं  छोटे या बड़े, सुख या दुख, साधारण या महत्वपूर्ण, सभी कार्य तुम्हारे सेवा में लगा दूँ ।

बाबा! मैं यहाॅं इस धरा पर तुम्हारे सिद्धान्त, इच्छा और मार्गदर्शन  के अनुसार कार्य करने के लिये आया हॅूं। मैं यहाॅं तुम्हारे लय के अनुसार अपने जीवन की उषा से संध्या तक नाचने आया हॅूं। हे प्रभो! तुम्हारे दिये गये कार्यों को पूरा करने के लिये पर्याप्त समय नहीं है। मेरे ऊपर अपनी करुणा कीजिये जिससे मैं तुम्हारे दिये गये कार्यों  और जिम्मेवारियों को इस समयावधि में पूरा कर सकॅूं।

बाबा! हे परमपुरुष! मैं तो यहाॅं तुम्हारे आदेश  का पालन करने के लिये ही आया हॅूं। मैं धन नहीं चाहता, मान और प्रतिष्ठा भी नहीं चाहता। मुझे तो अपने इष्ट में निष्ठा-भक्ति  चाहिये है, जिससे तुम्हारे आशीष के बल से तुम्हारे सब आदेश को पूरा कर सकूॅं । इस संसार में , मैं तुम्हारी इच्छा की पूर्ति के लिए इस विश्व में आया हॅूं, मुझे अपने चरण कमलों में स्थान दीजिये।

टिप्पणी
करुणा- दूसरों के कष्ट देखकर मन में  सहायता की भावना आना करुणा कहलाता है। जब भक्त अपनी समस्याओं के कारण साधना करने में कठिनाई का अनुभव करता है, तब उसको देखते हुए परमपुरुष उसे उन्नति की ओर जाने में सहायता करते हैं यह उनकी करुणा है।

मान- मन की जड़ता की अवस्था में वह अष्ट पाशों  में बंध जाता है यह मान अष्ट पाशों  में से एक है। घृणा, शंका , भय, लज्जा, जुगुप्सा, कुल, शील और मान ये अष्ट पाश  कहलाते हैं।

प्रतिष्ठा- इस प्रतिष्ठा को पाने की इच्छा करने वाला व्यक्ति ,प्रत्येक से अपने प्रति सम्मान की अपेक्षा रखता है और अपना प्रचार प्रसार करता है। उसका यह काम किसी भिखारी से  कम नहीं है क्यों कि भिखारी धन माॅंगता है और यह व्यक्ति सम्मान। साधना के मार्ग में प्रतिष्ठा को शूकर की विष्ठा के समान त्याज्य माना गया है।
इष्टनिष्ठा- इसमें अपने लक्ष्य के प्रति समर्पण की भावना जागती है और भक्त मानने लगता है कि उसके द्वारा जो भी मानसिक , सामाजिक , आर्थिक या राजनैतिक सेवायें की जा रहीं हैं वे अपने प्रभु को प्रसन्न करने के लिये ही हैं। (1)

Reference
1. Trans: Dr. T.R.S.


== Section 6 ==

Re: Why this type of puja is dangerous

BABA krpa hi kevalam. Jai ho bhagvada dharma kii. Anandamarga ekta kii.

Baba’s grace is everything. Victory to bhagavad dharma.


- Here is a link to the initial letter on this topic - Why this type of puja is dangerous


Sunday, December 6, 2015

बाबा कथा: रांची में बाबा का दर्शन + 4 Important items + more

Baba

This email contains six sections:
1. Posting: बाबा कथा: रांची में बाबा का दर्शन: आध्यात्मिक तरंगों का भूचाल
2. Hindi Quote: जाड़े की रात में भी, गङ्गा में उतना पानी वे रहेंगे
3. Bangla Quote: অন্যায়ের বিরুদ্ধে সংগ্রাম করতে-করতে নিজেকে সত্পথে রেখে এগিয়ে চলতে হৰে
4. The complete seeds of welfare are embedded in Sixteen Points - Ananda Vanii
5. End Quote: Prout: mischief-mongers who create language disputes...
6. Links


बाबा कथा: रांची में बाबा का दर्शन: आध्यात्मिक तरंगों का भूचाल
बाबा,
नमस्कार,

एक दिन मैंने निश्चय किया कि मैं रांची जाकर बाबा का दर्शन करूँ। आरा में दर्शन के बाद बाबा का मैंने दर्शन नहीं किया था। वे उस समय वहीँ पर प्रवास कर रहे थे। मैं रांची गया। बाबा के अपने क्वार्टर से निकलने के समय उपस्थित दर्शनार्थीगण दो पंक्तियों में खड़े हो गये। सभी बाबा के बाहर आने कि प्रतीक्षा करने लगे। बाबा जिधर से आते, मैं उधर ही बायीं ओर की पंक्ति में दो-चार आदमियों के बाद खड़ा था। बाकी बहुत से लोग हमारे दाहिने ओर दोनों पंक्तियों में खड़े थे। बाबा अपने कमरे से निकले। उनके साथ अन्य कुछ लोग भी थे। संख्या मुझे ठीक – ठीक स्मरण नहीं, यही कुल पाञ्च – छह जन होंगे। बाबा जैसे ही अपने कमरे से निकले और उपस्थित लोगो कि उन पर नजर पड़ी – जैसे उन लोगो के शरीर और मन पर तरंगों का भूचाल आ गया। सभी बाबाऽ बाबाऽऽ कर रहे थे। कोई रो रहा था तो कोई जोर – जोर से बाबाऽ बाबाऽऽ कर रहा था। कोई-कोई विह्वल हो कर एकदम शान्त हो गए थे। मेरी समझ में जिनका जैसा संस्कार था, जैसा मानसिक विकास और शारीरिक संरचना भी, उन्हें उसी के अनुरूप बाबा के आध्यात्मिक तरंगों कि अनुभूति हो रही थी। और मैं? मैं भी बाबा को देखते ही तरंगायित हो रहा था। सारा शरीर पुलकित था। शरीर में रोमांच के जैसा हो रहा था। मुझे नहीं मालूम कि उन कथित रोमांचों का कैसे वर्णन करूँ? क्योंकि वे रोमांच भी नहीं थे। शब्द के अभाव में मैंने उन्हें रोमांच कह दिया। इच्छा कर रही थी कि ऐसे ही रोमांच आते रहें। बाबा धीरे-धीरे हमारी पंक्ति कि ओर बढ़ रहे थे और उसी वेग से तरंगों का प्रवाह भी साधकों पर बढ़ते जा रहा था। जैसे ही परम पुरुष बाबा श्री श्री आनन्दमूर्ति जी पंक्तियों के अंदर घुसे, साधको के मन आध्यात्मिक तरंगों में लहराने लगे। सभी अपनी-अपनी तरह कि अनुभूतियाँ पा रहे थे। और अपने बारे में क्या कहूँ? बाबा आये। मैं अपने मन में उनसे प्रार्थना करने लगा कि – “हे प्रभो! जरा मेरी ओर भी देखकर मुझे भी कृतार्थ करें|” लेकिन वे  मेरी ओर देखे बिना छलिया कि भांति आगे बढ़ चले और उनके पीछे-पीछे बह चला मैं “बाबा हो बाबा” कहते और रोते। मैं बाबा हो बाबा कहते रो रहा था और उनके पीछे-पीछे खींचते चला जा रहा था। वहाँ के अनुशासन के अनुसार अपनी – अपनी जगह पर खड़ा हो कर स्थिर रहना था। लेकिन मैं वहाँ खड़ा रहने कि स्थिति में नहीं था। मुझे मालूम पड़ रहा था – साक्षात् अनुभव हो रहा था कि कोई अदृश्य शक्ति अपनी ओर मुझे बरबस खीचे चली जा रही है । मैं जानकर या जरा भी सोचकर उनके पीछे नहीं जा रहा था। बल्कि मैं तो “लोहे और चुम्बक” वाली स्थिति में था। वहाँ अपना कोई वश नहीं था। वह क्षण अविस्मरणीय था। मैं किसी तरह कि अतिरंजना के बिना कह रहा हूँ आप विश्वास करें। सच्ची बात यह है कि पूर्ण घटना को मैं लेखनी से नहीं बाँध सकता – वह असंभव कार्य है। यहाँ तो आत्मसंतोष के लिए इतना लिख रहा हूँ | ----प्रभु आगे बढ़ चले और उनके पीछे-पीछे  मैं बह चला, “बाबा हो बाबा” बोलते-बोलते, रोते-रोते, रोते-रोते।

परम प्रभु, बाबा चरण में
देवकुमार


Shrii Bhakti jii presents this story:

We are very grateful to Shrii Bhakti for his immense contribution of putting the hardly legible material into a usable electronic format. Without his efforts it would not have been possible to publish this story. - Eds


== Section 2 ==


जाड़े की रात में भी, गङ्गा में उतना पानी वे रहेंगे

"मनुष्य बहुत कुछ करते हैं प्रमाद के साथ, जहाँ किसी भी प्रकार की वृत्ति के द्वारा प्रेषित होते हैं, वहीं वे प्रमाद-ग्रस्त हो जाते हैं | जैसे, पुण्य का लोभ; परमात्मा को पाने का इच्छा नहीं, पुण्य का लोभ; उसके कारण क्या करेंगे ? जाड़े की रात में भी, गङ्गा में उतना पानी वे रहेंगे, स्नान करेंगे, सोचेंगे; इससे पुण्य होगा | तो, पुण्य के लोभ के कारण वे काम जो कर रहे हैं, वह प्रमाद है; उससे रोग हो जाएगा, कुछ तो | तो, समाज में मनुष्य बहुत काम करते हैं जो, वृत्ति के द्वारा प्रेषित होकर; वह सब काम प्रमाद-ग्रस्त है | आपातः लोभ के कारण मनुष्य वह सब काम करते हैं |"

 [यह बाबा के कैसेट से सीधे लिखा गया, बाबा का यह असली प्रवचन, अमृतोपदेश है। आनन्द मार्ग हिन्दी पुस्तकों में छपे प्रवचन तो नक़ली प्रवचन हैं, असली नहीं] (1)

Reference
1. GD 26 May 1969 Ranchi


== Section 3 ==


অন্যায়ের বিরুদ্ধে সংগ্রাম করতে-করতে নিজেকে সত্পথে রেখে এগিয়ে চলতে হৰে

“চলতে হৰে, এগিয়ে যেতেই হৰে | এবং অন্যায়ের বিরুদ্ধে সংগ্রাম করতে-করতে নিজেকে সত্পথে রেখে এগিয়ে চলতে হৰে, চলতে হৰেই | কিন্তু চলতে হৰে ৰুদ্ধি-সম্মত পন্থায়, ধর্ম-সম্মত পন্থায় | অধর্মের বিরুদ্ধে, সংগ্রামের মাধ্যমে | নিরীহকে রক্ষা করৰার ব্রতের মাধ্যমে এগিয়ে যেতে হৰে |” 


Reference
1. Egiye Cala'i Ma'nus'er Dharma


== Section 4 ==

The complete seeds of welfare are embedded in Sixteen Points

“The very import of the history of human welfare is the history of struggle and strife. Even the sweet gospels of peace could not be preached in an environment of peace and composure. Devils did not allow the apostle of peace to work peacefully – that is why I say that peace is the outcome of fight. This endeavour at the well-being of the human race concerns everyone – it is yours, mine and ours. We may afford to ignore our rights, but we must not forget our responsibilities. Forgetting the responsibility implies the humiliation of the human race. In order to march ahead on the road of human welfare, we will have to strengthen ourselves in all the arena of life. The complete seeds of welfare in all the spheres – physical, mental, moral, social and spiritual – are embedded in the sixteen points. Hence be firm on the sixteen points.” (Ananda Vanii #45)

Note: The above is one of Baba’s original Ananda Vaniis. These original and true Ananda Vaniis are unique, eternal guidelines that stand as complete discourses in and of themselves. They are unlike Fake Ananda Vaniis which are fabricated by most of the groups - H, B etc.

 
== Section 5 ==

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Prout: mischief-mongers who create language disputes must read this

"The problem of language is affecting the human society like a chronic disease. Ignorance of the proper meaning of different languages has made the confusion worse. Language is a medium of expression. There are six stages in the process of expression. The seed of expression is called Parashakti and lies in the Muládhára Cakra (or basic plexus). In the Svádhisthána Cakra (or fluidal plexus), a person mentally visualises the expression. The mental vision of one's expression is called Pashyanti Shakti. In the Mańipura Cakra (or solar plexus) this mental vision is transformed into mental sound which is called Madhyamá Shakti. The person now wants to express that feeling. This endeavour to express the feeling is called Dyotamáná Shakti. It works between the navel area and the throat. In the vocal cord it transforms an idea into language. This is called Vaekharii Shakti. After Vaekharii it is transformed into actual spoken language and is termed Shrutigocará. Thus linguistic differences are manifest only in the sixth stage of expression. In the first five stages there is no distinction or variation in the expression. A great deal of inter-community conflict could be checked if linguists and the mischief-mongers who create language disputes knew this fundamental fact. In essence, it is ignorance that brings untold miseries to humanity. It is a great folly on the part of prakrti to create so many languages, but diversity is the law of nature." (1)

Reference
1. Talks on Prout
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== Section 6 ==

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